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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

रहनेका अनुरोध करते हुए उन्होंने भारतमें हुई हालकी घटनाओंका जिक्र किया। हम इस विवादके गुण-दोषोंकी चर्चा में नहीं पड़ना चाहते; परन्तु हम यह आशा रखते है कि श्री वाइबर्ग जैसा एक जिम्मेदार राजनीतिज्ञ विधानसभामें अपने आसनसे दक्षिण आफ्रिकाकी जनतासे ऐसे। निहायत गैरजिम्मेदार तरीकेसे बात न करेगा। अगर उन्होंने भारतीय समस्याओंका विशेष अध्ययन न किया हो तो यह साफ जाहिर है कि वे सिर्फ उतना ही जान सकते हैं जितना समुद्री तारों द्वारा भेजे गये घटनाओंके सारांशोंसे संसारको विदित हो पाता है। और अगर वे यह नहीं मानते कि सभी सरकारें भूल-भ्रान्तियोंसे परे हैं तो उन्हें यह माननेका कोई हक नहीं है कि भारतीय नेताओंको निर्वासित करनेकी अधिकारियोंकी कार्यवाही या तो अपने-आपमें अच्छी थी या उसका कोई शान्तिजनक परिणाम हुआ है। शायद हम माननीय सदस्यकी अपेक्षा कुछ अधिक जाननेका दावा कर सकते हैं, फिर भी ब्रिटिश साम्राज्यके उस भागमें जो घटनाएँ घट रही हैं उनके निकट-सम्पर्कमें न होनेके कारण हमने कुछ न कहने में ही बुद्धिमानी समझी है।

श्री वाइबर्गने एक नासमझी और की है कि उन्होंने भारतमें होनेवाली घटनाओंसे यह नतीजा निकाला कि ट्रान्सवालमें अनाक्रामक प्रतिरोधके लिए भड़कानेवाले भारतीयोंको निर्वासित करनेके लिए इस धारा द्वारा दिये गये अधिकार उपयोगी हो सकते हैं। यहाँ उन्होंने यह प्रकट कर दिया कि उनमें विषयको समझनेकी क्षमता नहीं है। भारतकी घटनाओंको बगावतका रंग दिया गया है और उनका अर्थ ब्रिटिश राजके विरुद्ध विद्रोह लगाया गया है। ट्रान्सवालके भारतीयोंके धर्मयद्धकी किसी भी विद्रोही आन्दोलनसे जरा भी समानता नहीं है। इसका अर्थ इतना ही है कि यह समुदाय अपनी नैतिक भावनाको नष्ट होने देनेके बजाय घोर शारीरिक कष्ट सहन करनेको तैयार है। यह ट्रान्सवालके भारतीयोंका नाजरथके देवदूतके इस उपदेशपर चलनेका प्रयत्न मात्र है कि “बराईका विरोध न करो"।

निःसन्देह इस बातकी ब्रिटिश भारतीयोंको जरा भी परवाह नहीं कि श्री वाइबर्ग सदनको उनके विरुद्ध भड़का रहे हैं। वे किसी धमकीसे कर्तव्य-विमुख होनेवाले नहीं हैं। उन्होंने बुरेसेबुरा परिणाम पहले ही सोच लिया है। उनका साहस उद्देश्यकी पवित्रता और आत्मसम्मानको कलंकित न होने देनेके निश्चयसे पैदा हुआ है। हम श्री वाइबर्गके उद्गारोंकी चर्चा सिर्फ इसलिए कर रहे हैं कि हम उन्हें सच्चा, किन्तु गुमराह व्यक्ति मानते हैं और यह दिखाना चाहते हैं कि पूर्वग्रहपूर्ण वातावरणमें एक सन्तुलित मानस भी कैसे विचलित हो जाता है। विधानसभाके सब सदस्योंमें अकेले श्री हॉस्केन ही ऐसे थे जिन्होंने श्री वाइबर्गके भाषणकी प्रतिशोधवृत्तिकी जोरदार भर्त्सना की। श्री हॉस्केनको यह कहने में कोई संकोच नहीं हुआ कि यह विधेयक रूसी या जर्मन इलाकेमें ही सम्भव है, ब्रिटिश भूमिपर नहीं। श्री वाइवर्ग क्या जानें कि किसी विशेष वर्ग के लोगोंका दमन करने के लिए ग्रहण किये हुए निरंकुश अधिकार उलटकर उन लोगोंपर असर करते हैं, जिनके बारेमें स्वप्नमें भी नहीं सोचा जाता। परन्तु हमें आशा है कि शान्त होकर सोचनेपर उन्हें अपनी भूलपर पश्चत्ताप हुआ होगा।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २०-७-१९०७