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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

उनके प्रस्तावोंको ठुकरा देते हैं, अगर उनके परम प्रभु सम्राट् एडवर्ड, महमूद गजनवीकी तरह, उनकी रक्षा कर सकने में अपनेको असमर्थ घोषित करते हैं, तो इसमें उनका क्या बनता-बिगड़ता है? ईसाको ठुकराया गया, उन्हें चोरों और डाकुओंके साथ ऐसी मौतका भय दिखाकर जो उनके उत्पीड़कोंकी दृष्टिमें लज्जाजनक थी, उनसे ईश्वर निन्दा करवानेका प्रयत्न किया गया, फिर भी क्या उन्होंने अन्ततक उसका विरोध नहीं किया? लेकिन काँटोंका ताज उस लहू-लुहान मस्तकपर आज जितना फब रहा है उतना बढ़ियासे-बढ़िया हीरोंसे जड़ा ताज भी किसी सम्राट्के मस्तकपर नहीं फबता। वे मरे, इसमें शक नहीं, लेकिन फिर भी ईश्वरके सच्चे भक्तोंकी स्मृतिमें वे आज भी जीवित हैं; और उसके साथ वे चोर भी जीवित हैं, जिन्होंने उस विनम्र नाजरथवासी और उसके उपदेशोंको ग्रहण किया था।

इसी प्रकार, ट्रान्सवालके भारतीय, अगर वे अपने परमात्माके प्रति सच्चे बने रहे तो अपनी उन सन्तानों और देशवासियोंकी स्मृतिमें जीवित रहेंगे, जो उनके इस क्षण-भंगुर संसारको छोड़ जानेपर कह सकेंगे कि "हमारे बापदादोंने रोटीके एक टुकड़ेके लिए हमारे साथ विश्वासघात नहीं किया।"

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २७-७-१९०७

८६. श्री पारसी रुस्तमजीकी उदारता

श्री रुस्तमजीने , जिनका नाम दक्षिण आफ्रिकाके भारतीयोंका बच्चा-बच्चा जानता है, हमें एक मार्केका पत्र गुजरातीमें लिखा है। उसका अनुवाद हम नीचे देते हैं:

यद्यपि मैंने अक्सर ट्रान्सवालमें रहनेवाले अपने देशवासियोंकी दशाके बारेमें अपने विचार जनताके सामने प्रकट किये हैं, फिर भी शायद आप मुझे अपने पत्र द्वारा उन्हें प्रकट करनेका मौका देंगे। ट्रान्सवालके भारतीय जिस संघर्ष में लगे हुए हैं, उसके फलका दक्षिण आफ्रिकाका प्रत्येक भारतीय भागीदार होगा। हम लोग, जो उस देशसे बाहर हैं, उनके शारीरिक कष्टोंमें सम्भवतः हिस्सा नहीं बँटा सकते। उन्हें सिर्फ जेलकी ही मुसीबतें नहीं झेलनी पड़ेंगी बल्कि बहुतेरोंको अपना सर्वस्व गँवा देना होगा। अगर हम जेल नहीं जा सकते तो कमसे-कम उनके उच्चादर्शका अनुकरण करके सर्वसाधारणकी भलाई में अपनी माल-मिल्कीयत तो कुर्बान कर ही सकते हैं। इसलिए मैं, पूर्ण नम्रताके साथ और ईश्वरको साक्षी रखकर, ट्रान्सवालमें रहनेवाले अपने देशवासियोंको सूचित करता हूँ कि मेरी यह आन्तरिक अभिलाषा है कि मैं उनके दुःखमें हाथ बटाऊँ; इसलिए आजसे इस दुनियामें माल-मिल्कीयतके नामपर मेरे पास जो-कुछ भी है वह सब तबतक ट्रान्सवालमें रहनेवाले मेरे देशवासियोंकी धरोहर होगी, जबतक कि इस संघर्षका अन्त न हो जायेगा। मुझे इसमें जरा भी सन्देह नहीं है कि दक्षिण आफ्रिकामें मेरे

[१] सन् ९९७ ६० में गजनीकी गद्दीपर बैठनेके बाद उसने भारतपर १७ वार चढ़ाई की, किन्तु अपनी विजयको स्थायी नहीं बना सका। देखिए खण्ड ३, पृष्ठ ३९०।

[२] नेटालके प्रमुख भारतीय व्यापारी; देखिए खण्ड १, पृष्ठ ३९५।

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