बहुत-से मित्र अपना कर्तव्य समझकर ट्रान्सावलके भारतीयोंको इसी प्रकारकी आर्थिक सहायता देनेको तैयार हैं। सचमुच, प्रिटोरियाने हमारे दिलोंको आशासे भर दिया है। हमें भरोसा है कि वहाँ बसनेवाले और ट्रान्सवालके दूसरे हिस्सोंमें रहनेवाले हमारे देशवासी अपने संकल्पको अन्ततक निबाहेंगे।
इस पत्रसे सारी बातें स्वयं ही प्रकट हैं। हम तो सिर्फ अपनी रायके तौरपर इतना कहना चाहते है कि जो लोग श्री रुस्तमजीको जानते हैं, उन्हें मालूम है कि इस वचनका अर्थ कितनी बड़ी ठोस सहायता है। यह ऐसा पत्र है जिससे प्रत्येक भारतीयका हृदय नये साहस और उमंगसे भर जाना चाहिए।
इंडियन ओपिनियन, २७-७-१९०७
८७. श्री आदमजी मियाँखाँकी मृत्यु
गुलाम हुसेन मियाँखां ऐंड कंपनी, डर्बनकी पेढ़ीके मालिक और नेटाल इंडियन काँग्रेसके उपसभापति श्री आदमजी मियाँखाका, इसी महीनेकी २० तारीखको अहमदाबाद, भारतमें ४१ वर्षकी अपेक्षाकृत अल्पायुमें, देहान्त हो गया। श्री आदमजी गत फरवरीमें भारतकी यात्राको गये थे और डर्बनमें उनके भाईको उनके पत्र नियमित रूपसे मिल रहे थे। किन्तु किसी गम्भीर बीमारीकी शिकायत नहीं मिली थी। श्री आदमजीने नेटालके भारतीय समाजकी बड़ी सेवाएँ की हैं और उनकी भलाईसे सम्बन्धित सभी मामलोंमें उनकी योग्य तथा स्वेच्छाजनित सहायताकी कमी बहुत महसूस की जायेगी। गुजरातकी राजधानीमें गोटाकिनारीके व्यापारियों के एक प्रसिद्ध घराने में जन्म लेकर, श्री आदमजी मियांखाँ अपने पिता और अपने भाई श्री गुलाम हुसैनके साथ १८ वर्षकी आयुमें, सन् १८८४ में, दक्षिण आफ्रिकामें आकर बस गये थे। उनके अंग्रेजी ज्ञानने भारतीयों और अनेक यूरोपीय मित्रोंके बीच प्रसिद्धि प्राप्त करने में उनकी बड़ी सहायता की थी। किन्तु भारतीय सार्वजनिक मामलोंसे उनका निकट सम्पर्क १८९६ से पहले नहीं हुआ था। काँग्रेसके तत्कालीन अवैतनिक मन्त्रीके कुछ दिनोंके लिए अलग हो जानेपर श्री आदमजी, अपने कार्य और सुनहले गुणोंके कारण काँग्रेस द्वारा अवैतनिक मन्त्रीके रूपमें कार्य करनेके लिए सर्वसम्मतिसे निर्वाचित हुए। उनके इस कार्यकालमें श्री अब्दुल करीम हाजी आदम झवेरीने बड़ी योग्यतापूर्वक उनकी सहायता की। श्री आदमजीने काँग्रेसकी पूंजीको १०० पौंडसे बढ़ाकर १,१०० पौंड कर दिया और १८९६ के अन्तमें तथा १८९७ के आरम्भमें, जब प्रसिद्ध भारतीय विरोधी प्रदर्शन डर्वनमें हुआ तब श्री आदमजी अपने धैर्य, शान्ति और दृढ़तासे समाजकी गम्भीर कठिनाइयोंका सामना करने में सहायक हुए।
इंडियन ओपिनियन, २७-७-१९०७
[१] अगला शीर्षक भी देखिए।
- ↑ १.