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९३. ईस्ट लन्दनको चेतावनी

ईस्ट लन्दनके भारतीय एक शिष्टमण्डल केप ले गये थे। उसके कामके सम्बन्धमें विलायतके अखबारोंमें तार छपा है। उसमें यह कहा गया है कि 'कुली भारतीयों के नियन्त्रणके लिए कानून बनाये जाने चाहिए, इस बातको भारतीय समाज स्वीकार करता है। किन्तु वह इज्जतदार भारतीयोंके लिए छूटके विशेष कानूनकी माँग करता है। उसमें यह भी कहा गया है कि जैसे काफिरोंको छूटके पत्र मिलते हैं वैसे कुछ भारतीयोंको भी दिये जायें।

हम नहीं मानते कि ईस्ट लन्दनके भारतीयोंने ऐसी कोई मांग की होगी। हमारे दुश्मन तो ऐसी भूलकी प्रतीक्षामें ही बैठे हुए हैं। क्योंकि हम यदि ऐसा भेदभावपूर्ण कानून माँग लें तो वह तो अपने हाथों अपने पैरोंपर कुल्हाड़ी मारनेके समान होगा। अच्छे और बुरे लोगोंके बीच दुनियामें सदा ही अन्तर रहा है, और रहेगा। किन्तु अच्छे कौन और बुरे कौन, नीच कौन और ऊँच कौन, यह मर्यादा कानून नहीं बाँध सकता। आज जो फेरी लगाता होगा वह कल व्यापारी बन सकता है। व्यापारी गरीब बन सकता है और नौकरी कर सकता है। यह होता ही रहता है। इसमें 'कुली' कौन कहलायेगा? भेद कैसे रह सकता है? ऐसे भेद कौन कर सकता है? गोरे अधिकारीके हाथसे ऊँच या नीचका टीका लगवाने कौन जायेगा? हमें निश्चित मालूम होता है कि कानून भेद बरतकर कुछ भारतीयोंको छूटके पत्र नहीं दे सकता। वैसा करना अपने हाथों गुलामीको निमन्त्रण देनेके समान होगा।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, २७-७-१९०७

९४. रूसका उदाहरण

हमारे पाठकोंको मालम है कि रूसके ज़ारने डयमायानी संसद, की स्थापना की है। अंग्रेजी अखबारोंमें अभी यह खबर प्रकाशित हुई है कि ड्यूमाके बहुतेरे सदस्य देशहितके लिए कैद अथवा निर्वासन भोग चुके है। इसलिए इस संसदका प्यारका नाम 'कैदियोंकी सभा' भी है। ड्यूमाके सदस्योंके चुनावमें लोगोंने जेलसे लौटे हुए लोगोंको ज्यादा पसन्द किया। ये कोई बिना पढ़े-लिखे या ग्रामीण नहीं, बल्कि विद्वान लोग हैं। कोई-कोई बड़े वकील और चिकित्सक हैं। उनमें एक श्री गोबरनाफ़ नामक सदस्य हैं। उन्हें मौत तक की सजा हुई थी। श्री सिम्बसंकको अनेक वर्षोंके लिए साइबेरियामें निर्वासित कर दिया गया था। ऐसे लोगोंके चुने जानेसे रूसके शासक बहुत बार नाराज होते हैं। किन्तु सदस्य

[१] इसकी स्थापना १९०५ में की गई थी। इसके सदस्य सीमित मताधिकारके आधारपर चुने गये थे। १९१७ में इसे तोड़ दिया गया था।

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