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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

बल है, इसलिए उसको पलटा नहीं जा सकता। उसके सामने झुकना ही होगा। परन्तु मैं उसे अवश्यम्भावी नहीं मानता। अवश्यम्भावी तो यह है कि जिन ब्रिटिश भारतीयोंको इस देशमें मताधिकार नहीं है, जिनकी कोई पूछ नहीं है, जिनके प्रार्थनापत्र रद्दीको टोकरीमें फेंक दिये जाते हैं और जिनके लिए विधान-सभामें एक आदमीने भी अपनी आवाज नहीं उठाई है—और तो खुद श्री हॉस्केन भी जिनके पक्षमें एक शब्द नहीं कह सके, क्योंकि वे जानते थे कि उन्हें सुसंगठित और ठोस विरोधका मुकाबला करना पड़ेगा—वे भारतीय इस कानूनका विरोध करें। ऐसी स्थितिमें अवश्यम्भावी है, ईश्वरकी इच्छाके सामने ही अपना सर झुका देना। अगर उसकी यह इच्छा है कि पूरेके-पूरे १३,००० भारतीय अपने सर्वस्वका बलिदान कर दें, इस संसारमें हमें आर्थिक लाभ पहुंचानेवाली जो भी चीजें हैं उन सबको छोड़ दें, तो भारतीयोंको इस नियतिके सामने सर झुकाना है। परन्तु इस अपमान और नीचे गिरानेवाले कानूनको हरगिज नहीं मानना है। श्री हॉस्केनके प्रति पूर्ण आदर रखते हुए भी मेरा विचार है कि वे अपनी चमड़ीका रंग नहीं बदल सकते। और न ही वे इस देशमें रहनेवाले भारतीयोंको उनके जीवन-मरणके प्रश्नके सम्बन्धमें सलाह दे सकते हैं।

मैं इस देश में तेरह वर्षसे रह रहा हूँ और अपने देशभाइयोंकी सेवा करता आया हूँ (करतल ध्वनि)। मैं अपने-आपको दक्षिण आफ्रिकाके शान्ति-प्रेमियोंमें गिनता हूँ। और बहुत सोच-विचार और सलाह-मशविरेके बाद ही मैंने यह धर्म-युद्ध छेड़ा, अपने देशभाइयोंको इसमें शामिल होनेकी सलाह दी। मैंने एशियाई कानूनकी एक-एक धारा पढ़ी है और उपनिवेशके प्रायः सारे कानून भी पढ़ लिये हैं। उसके बाद ही में विचारपूर्वक इस निश्चयपर पहुंचा हूँ। और मुझे नहीं लगता कि मैं इस निर्णयको बदलूंगा, क्योंकि यदि एशियाई इस कानूनको मान लेते हैं तो उनकी स्थिति शुद्ध गुलामोंकी-सी हो जायेगी। इससे जरा भी कम नहीं।

सो कैसे? जब मैं लन्दनमें था तब श्री हॉस्केनके देशभाइयोंको मैंने एक मिसाल सुनाई थी। मैंने कहा था, "यहाँ राह चलता हर आदमी एक रेशमका टोप पहनता है। अब मान लीजिए कि लन्दनमें इस आशयका एक कानून जारी किया जाता है कि हर अंग्रेजके लिए रेशमका टोप पहनना अनिवार्य होगा तो क्या सारा लन्दन टोप पहनना छोड़ नहीं देगा?"वहाँके मित्रोंके सामने मेंने यही स्थिति रखी थी। यह एक बहुत तुच्छ-सा उदाहरण है। यहाँ यह केवल एक प्रकारका टोप पहननेकी बात है। परन्तु अंग्रेज जाति अपनी स्वतन्त्रताको इतना कीमती समझती है कि यदि उसके अपने देशमें कोई ऐसी जबरदस्ती करनेवाला कानून बनाया जाये, फिर उसका उद्देश्य कुछ भी हो, तो हर अंग्रेज निश्चय ही उसका विरोध करेगा। दक्षिण आफ्रिकाका प्रश्न टोप जैसा छोटा नहीं है। यहाँ तो बाँहों और पेशानीपर गुलामीकी निशानी धारण करनेकी बात है। मैं आपसे अनुरोध करता हूँ कि आप यह निशानी कदापि धारण न करें।

आपको यह सलाह देनेके लिए मैं अपने-आपको पूरी तरहसे जिम्मेवार मानता हूँ। परन्तु उसके साथ में यह कह देना चाहता हूँ, कि इस कानूनके पीछे छिपी मानहानिको मेरे भाई मेरी अपेक्षा कहीं अधिक अनुभव कर रहे हैं। क्योंकि मैं तो इस कानूनकी उन खामियोंको जानता हूँ जो मेरे देशभाइयोंके पक्षमें जाती है। मैं यह भी जानता हूँ कि ऐसे देशमें रहते हुए हमें कुछ पूर्वग्रहोंकी गुंजाइश तो रखनी ही पड़ेगी। इसलिए हमने कुछ अपमान और थोड़ी इज्जती चपचाप बरदाश्त भी कर ली। परन्तु अब तो प्याला लबालब भर गया है। ब्रिटिश