भारतीय अब जान गये है कि इस कानूनमें जो अपमान और गिरावट निहित है उसे सहकर इस देशमें रहना अब हमारे लिए सम्भव नहीं है। हम खुद सोच-विचारके बाद इस नतीजे तक पहुँचे हैं कि अब हमारे लिए इस देशमें रहना सम्भव नहीं है। अगर कानूनके बारेमें मेरे देशभाइयोंके ये विचार और ये भावनाएँ न हों तो मैं सबसे पहिले अपनी गलती स्वीकार कर लूंगा। मैं इस कानूनका पालन करूँगा और खुले तौरपर ऐलान कर दूंगा कि इस मामलेमें मुझसे भूल हो गई है और हम इस अध्यादेशके पात्र हैं।
श्री ईसप मियाँने सारी स्थिति बड़ी स्पष्टताके साथ हमारे सामने रखी है, अधिनियम और स्वेच्छया पंजीयनका अन्तर बताया है। अब सारी स्थिति हमारे सामने है। स्वेच्छया पंजीयन करवानेसे और इस अध्यादेशके अन्तर्गत अनिवार्य पंजीयन करानेसे हमारी स्थिति कैसी हो जायेगी, हम इन दोनों तस्वीरोंकी कल्पना कर लें। इस कानूनकी तफसीलोंमें जाना मेरा काम नहीं है। परन्तु मौलवी साहबने हमें समझानेके लिए एक-दो मिसालें बताई हैं। श्री हॉस्केन मौलवी साहबकी भाषा नहीं जानते थे। इसलिए उन्होंने समझ लिया कि वे कोई निजी शिकायत सुना रहे हैं। परन्तु जो लोग कौमकी सेवा करना चाहते हैं उनके लिए निजी शिकायत जैसी कोई चीज ही नहीं हो सकती। मौलवी साहबने तो कहा था कि वा घणाके लायक है। और में पुरी नत्रता, किन्तु और भी अधिक जोरके साथ कहता है कि वह अत्यन्त घणित और अपमानजनक है और मुसलमानों और ईसाइयोंमें भेद करता है। तुर्कीके मुसलमानोंपर तो वह लागू किया जा रहा है, परन्तु वहाँके ईसाइयों और यहूदियोंको उससे मुक्त रखा गया है। मैं ऐसे किसी तुर्को मुसलमानको नहीं जानता जिसका तुर्किस्तानके किसी ईसाई या यहूदीसे कोई झगड़ा हो। इस अपमानको, इस कड़वी घुटको, पीना तो उनके लिए भी मुश्किल है।
परन्तु मान लीजिये कि इस देश में किसी तरह अपना पेट पालनेके लिए हम इन सब बातोंको बरदाश्त कर लेते हैं तो भी इसका क्या भरोसा कि हमारी माली हालत निश्चित रूपसे सुधर ही जायेगी; और हमारे जो अधिकार पहले ही से छिन गये हैं वे हमें वापस मिल जायेंगे? कहीं कुछ गौण फेरफार कर भी दिये जायें तो भी हमसे सम्पत्तिका अधिकार छिन ही जायेगा, अलग बस्तियों में भी रहना होगा, और पता नहीं क्या-क्या हो। इन सारी परिस्थतियोंका सामना हमें करना है। इसीलिए में अपने देशभाइयोंको सलाह देता हूँ कि वे इस अधिनियमको न माने।
इंडियन ओपिनियन, १०-८-१९०७