१०६. तार: प्रिटोरिया समितिको
जोहानिसबर्ग
[अगस्त १०, १९०७ के पूर्व]
ब्रिटिश भारतीय संघ
संघ की समितिने तथा हाइडेलबर्ग, पॉचेफ्स्ट्रम, फेनीखन (वेरीनिगिंग), मिडेलबर्ग, क्रूगर्सडॉर्प और अन्य शहरोंके प्रतिनिधियोंने भी, अपनी बैठकमें दासताके प्रमाणपत्रोंके लिए प्रार्थनापत्र देनेके समस्त विचारपर घृणा व्यक्त की। बैठकने प्रिटोरियाके भारतीयोंसे आग्रहपूर्वक अनुरोध किया कि वे अन्ततक मजबूत और वफादार रहें जिससे उनकी कायरता और स्वार्थपरता उनके देश और देशवासियोंके प्रति विश्वासघातका कारण न बने। यदि सब मजबूत रहे, जीत हमारी है। प्रिटोरियाको सब भारतीयोंके सम्मुख उत्साहवर्द्धक उदाहरण रखना है।
[ब्रि० भा० सं०]
इंडियन ओपिनियन, १०-८-१९०७
१०७. श्री हॉस्केनकी "अवश्यम्भावी"
सारे दक्षिण आफ्रिकामें श्री हॉस्केन अश्वेत जातियोंके मित्र समझे जाते हैं। वे दक्षिण आफ्रिकाके उन गिने-चुने लोगों में से हैं जो अपने विचारोंपर दृढ़ रहनेका साहस रखते हैं। इसलिए प्रिटोरियाके भारतीयोंकी आम सभामें उन्होंने जो बातें कहीं, वे बहुत ध्यान देने लायक है।
आइये, हम उनके बताये हए सिद्धान्तका विश्लेषण करें। सिद्धान्त यह है कि भारतीयोंको प्राच्य जातीय होने के नाते "अवश्यम्भावी" को मान्य करके उसके सामने सिर झुका देना चाहिए। इस शब्दसे श्री हॉस्केन यह समझाना चाहते हैं कि यह अधिनियम चूंकि ट्रान्सवालके गोरोंकी मांगपर स्थानीय संसदने सर्वसम्मतिसे स्वीकार किया है, इसलिए इसे उन्हें ईश्वरीय विधानके समान समझना चाहिए। श्री हॉस्केनके इस प्रस्तावपर हम आपत्ति करनेके लिए विवश हैं। माननीय महानुभावने स्वीकार किया है कि वे स्वयं इस कानूनको पसन्द नहीं करते और अगर उनके लिए सम्भव होता तो वे स्वयं भारतीयोंकी प्रार्थना स्वीकार कर लेते। उन्होंने यह भी स्वीकार किया है कि “अनाक्रामक प्रतिरोध" अपनी सच्ची शिकायतोंको दूर करनेका सही
[१] यह ब्रिटिश भारतीय संघ द्वारा भेजा गया था और इसका मसविदा अनुमानतः गांधीजीने बनाया था।
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