तरीका है। इसलिए श्री हॉस्केनका यह कथन कि यह कानून ईश्वरीय कानूनके समान है, स्वयं उन्हींकी बातोंसे कट जाता है। लेकिन हम तो इससे भी आगे जाते हैं। प्राच्य लोगोंके विचारानुसार कोई भी मानवीय कृत्य, जबतक कि वह वास्तवमें न्यायोचित न हो, दैवी होनहार नहीं समझा जाता। और जब-कभी कोई प्राच्य व्यक्ति किसी जाहिरा होनहारके सामने झुक जाता है तो उसके इस आचरणके पीछे हमेशा दैवी हाथकी मान्यताका भाव नहीं होता, बल्कि नीच स्वार्थपरता होती है। तब आत्मा चाहती है, पर देह साथ नहीं देती।
वह कौन-सी बात है जिसे श्री हॉस्केन भारतीयोंसे करवाना चाहते हैं? क्या यह कि वे इस देशमें बने रहने के लिए गुलामीके कानूनको मान लें? दूसरे शब्दोंमें, श्री हॉस्केन, जो ईश्वरके भक्त हैं, भारतीयोंको यह सलाह देना चाहते हैं कि वे पार्थिव लाभके लिए अपने पवित्र संकल्प और सम्मानको लात मार दें। हम उनके प्रभकी भाषामें जवाब देते हैं, "तम पहले ईश्वरके राज्य और सदाचारके पंथकी खोज करो, फिर तुमको सब-कुछ मिल जायेगा।" हमारा विश्वास है कि इस निकम्मे कानूनका विरोध करके भारतीय "ईश्वरका राज्य" खोजेंगे।
श्री हॉस्केन कहते है कि शपथ बन्धनकारी नहीं है क्योंकि वह गलतीसे ली गई है। लेकिन वह पवित्र घोषणा तो भारतीयोंने बहुत सोच-विचार कर की है और उन्होंने इस कानूनका विरोध करने और कैद या उससे भी अधिक कष्ट सहन करनेका जो निश्चय किया है वह केवल अपने ही सम्मानके लिए नहीं, बल्कि अपने प्रियजनों और स्वदेशकी प्रतिष्ठाके लिए भी किया है।
इसलिए, हमें विश्वास है कि श्री हॉस्केन, असहायोंके प्रति अपने स्वाभाविक उत्साहके साथ, एशियाई-प्रश्नको समझनेका प्रयत्न करेंगे और हमें निश्चय है कि भारतीय समुदायके सम्पूर्ण पक्षको मान लेंगे। वे सभामें सरकारकी ओरसे शान्तिदूत बनकर गये थे। हमें इसमें जरा भी सन्देह नहीं कि अगर वे भारतीय दृष्टिकोणको ठीक-ठीक समझ लेंगे तो एक सच्चे मध्यस्थका कर्तव्य पूरा करेंगे।
इंडियन ओपिनियन, १०-८-१९०७