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१०८. श्री अलीका विरोध

श्री अलीने अखबारोंको जो पत्र लिखा है उसकी तरफ हम ट्रान्सवाल-सरकारका ध्यान खींचना चाहते हैं। पाठकोंको याद होगा कि श्री अली उस शिष्टमण्डलके एक सदस्य थे जो लॉर्ड एलगिनसे एशियाई अध्यादेशके सम्बन्धमें मिला था। 'रैड डेली मेल' उसे एक कटु विरोध कहता है, और वह है भी। शायद, श्री अलीका मामला असाधारण हो, लेकिन इससे यह साफ जाहिर है, ऐसा और किसी तरह जाहिर नहीं हो सकता था, कि इस कानूनसे भारतीय समुदायको कितना कष्ट होनेवाला है। भारतीयोंकी आपत्तिको कोरी भावुकता कहकर दबा दिया गया है। श्री डंकनने बिना यह जाने कि इस कानूनका मतलब क्या है, यह कहनेकी कृपा की है कि एशियाइयोंके एतराजको दबा देना चाहिए। लेकिन हम पूछते हैं कि क्या श्री अलीने सिर्फ भावुकताके कारण ही यह रवैया अपनाया है ? क्या भारतीय समुदायसे यह कहा जायेगा कि श्री अली एक मूर्खताभरी भावुकताके पीछे ही, कदाचित्, भुखमरीका सामना करने जा रहे हैं? या लॉर्ड एलगिनकी आँखें खुलेंगी कि आखिरकार, ब्रिटिश प्रजाको, भले ही वह भारतीय हो, जहाँ-कहीं ब्रिटिश झंडा लहराता हो वहाँ वैयक्तिक स्वतन्त्रता और सुरक्षाका अधिकार है?

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, १०-८-१९०७

१०९. ट्रान्सवालके भारतीय

सरकारने पीटर्सबर्गके सम्बन्धमें जो सूचना प्रकाशित की है वह निःसन्देह नब्ज टटोलनेके लिए है और ऐसा लगता है कि सरकारको अब भी शक है कि एशियाई अधिनियमके खिलाफ जो विरोधकी भावना है, वह व्यापक और आम लोगोंमें फैली हुई है या सिर्फ मुट्ठी-भर "आन्दोलनकारियों" तक सीमित है। इस दृष्टिसे पीटर्सबर्गको सूचना न्यायोचित है। पीटर्सबर्गके भारतीयों द्वारा दिये गये जवाबसे जनरल स्मट्सके दिमागमें जो भी शंका हो, वह दूर हो जानी चाहिए। पीटर्सबर्गके भारतीय अपने शहरमें पंजीयन कार्यालयका भेजा जाना एक ऐसी आफत समझते हैं, जिससे बचना चाहिए। उन्होंने सरकारको प्रार्थनापत्र भेज कर जो बहादुरी दिखाई है, उसपर हम उन्हें बधाई देते हैं। लेकिन हम उन्हें और सारे ट्रान्सवालवासी भारतीयोंको भी, सावधान कर देना चाहते हैं कि सरकारने पूर्वग्रहोंकी जो अभेद्य दीवार उनके सामने खड़ी कर दी है, उसमें दरार करनेके लिए उन्हें बहुत ही कठिन और लम्बी लड़ाई लड़नी पड़ सकती है। खन बहाये बिना पापका प्रायश्चित्त नहीं हो सकता। ब्रिटिश भारतीयोंके लिए इसका यह अर्थ लगाया जा सकता है कि जेल और निर्वासन तक के कष्ट भोगे बिना उन्हें आजादी नहीं मिल

[१] देखिए "अलीका पत्र", पृष्ठ १५६।

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