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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

एक बहादुर भारतीय

कलकत्ताकी ओरके बख्तावर नामक एक भारतीयको अनुमतिपत्र कार्यालयने अंगुली लगानेको कहा, किन्तु उसने इनकार कर दिया। फिर उससे नये कानूनके अन्तर्गत अर्जी देनेको कहा गया। किन्तु उसने उसके लिए भी इनकार कर दिया। ऐसी हिम्मत प्रत्येक भारतीयमें होनी चाहिए।

लन्दनमें हलचल

खूनी कानूनके बारेमें लन्दनमें जोरोंसे हलचल हो रही है। बहुतेरे सदस्य प्रश्न पूछते रहते हैं। एक प्रश्नके उत्तरमें श्री चचिलने कहा है कि कानूनके अमलके सम्बन्धमें बड़ी सरकार हस्तक्षेप नहीं कर सकती। इस उत्तरसे में लोगोंमें कुछ घबड़ाहट देखता है। किन्तु घबड़ानेका कारण नहीं है। क्योंकि, पहली बात तो यह है कि हम अपनी हिम्मतके बलपर लड़ रहे हैं। इसमें बड़ी सरकार दखल नहीं देगी। किन्तु हम जिसे खराब काम मानते हैं उसे नहीं करते। दूसरे, बड़ी सरकार भले कानूनके अमल में हस्तक्षेप न करे। किन्तु कानूनके जुल्मके समय तो हस्तक्षेप किये बिना चल ही नहीं सकता। यदि हस्तक्षेप नहीं करेगी तो उसकी आबरू दो कौड़ीकी हो जायेगी। और आखिर ब्रिटिश साम्राज्य समाप्त हो जायेगा। अतः श्री चचिलके उत्तरका मै यही अर्थ करता हूँ कि जाहिरा तौरसे वे चाहे कुछ भी करें, किन्तु नाजुक समय आनेपर बिना हस्तक्षेप किये काम नहीं चलेगा। लेकिन नाजुक समयका अर्थ है हमारे जेल जानेके बादका समय।

चेत कर चलो

बुधवारको क्रूगर्सडॉर्पके श्री सुलेमान वाड़ीपर एक काफिरको शराब बेचनेका मुकदमा चला। दो गोरों और दो काफिरोंने खुफिया पुलिसको यह प्रमाण दिया कि श्री सुलेमानने आधी बोतल शराब बेची थी। श्री स्टैगमान तथा श्री गांधी वकील थे। बहुत मेहनत की गई। बयानसे साबित हुआ कि शराब बेचना धर्मके विरुद्ध है। बैंकके हिसाब-नवीस और दूसरे गोरोंने बयान दिया कि श्री वाड़ी बहुत इज्जतदार व्यक्ति हैं। हकीकत भी ऐसी ही मालूम होती है। कि श्री वाड़ीपर जाली मुकदमा चलाया गया है। वे निर्दोष है। फिर भी मजिस्ट्रेटने उन्हें दोषी ठहराकर छ: महीनेकी सजा दे दी है। श्री वाड़ीने अपील की है। नतीजा जो भी होना होगा, होगा। लेकिन सभी भारतीयोंको चेतकर चलना चाहिए। गोरे और काफिर अपने स्वार्थके लिए लोगोंको फंसानेसे हिचकनेवाले नहीं है। श्री वाड़ी निर्दोष हैं। अतः उनके लिए लज्जित होने की कोई बात नहीं है। जेल जाने में शर्म नहीं है, शर्म है अपराध करनेमें। वे बेकार खर्च में पड़े, यह बुरा हुआ। और अनजान लोग बदनाम करते हैं सो अलग।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, १७-८-१९०७