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१३५. पत्र: 'इंडियन ओपिनियन' को

जोहानिसबर्ग
अगस्त १७, १९०७

सम्पादक

इंडियन ओपिनियन

महोदय,

एशियाई कानून संशोधन अधिनियमके बारेमें मेरे और जनरल स्मट्स के बीच जो पत्रव्यवहार हुआ है उसकी प्रतिलिपि प्रकाशनके लिए इसके साथ भेजता हूँ। मेरी विनम्र रायमें इस प्रश्नने स्थानीयसे अधिक महत्त्व प्राप्त कर लिया है। मैं आखिरी दम तक यह मानता रहेंगा कि उपनिवेशियोंकी मानवता उनके विद्वेषभावपर विजय प्राप्त करेगी और यदि मेरे देशवासियोंने वे कष्ट सहन कर लिये, जिनका उन्होंने निश्चय किया है, तो उनकी मांग न्यायपूर्ण मान ली जायेगी। लेकिन बात ऐसी हो या न हो, मैं केवल एक सलाह दे सकता हूँ; और वह है कि, हमें स्वार्थ की पूर्ति करनेके बजाय निडर होकर अपनी शपथपूर्ण घोषणाको पूर्ण करने में लग जाना चाहिए।

इसलिए आवश्यक है कि जनरल स्मट्सने अपने पत्रमें जो जोरदार चेतावनी दी है, उसको मेरे देशवासी समझें। शायद उस जनताके लिए, जिसके नामपर यह कानून पास किया गया है और लागू किया जा रहा है, यह जानना भी जरूरी है कि मैंने उसके बदले में जो सूझाव देनेका विनम्र साहस किया है उससे यह कठिनाई पूरी तरह हल हो सकती है। उससे उपनिवेशमें रहनेवाले प्रत्येक एशियाईकी शिनाख्त हो जाती है और, एशियाई अधिनियमके विपरीत, उन एशियाइयोंकी संख्या हमेशाके लिए निश्चित हो जाती है जो (उन थोड़ेसे लोगोंको छोड़कर, जो प्रवासी विधेयककी शैक्षणिक धाराका लाभ उठाने के योग्य हो सकते है) उपनिवेशमें रहने के अधिकारी होंगे। इसीलिए असली सवाल, जहाँतक मैं समझ सकता है, अंगलियोंके निशानोंका अथवा दूसरे व्यौरोंका नहीं है, बल्कि मोटे रूपमें यह है कि सरकार भारतीयोंकी भावनाओंकी, यद्यपि उनको मत देनेका अधिकार नहीं है. कद्र करेगी या नहीं; या यदि सरकार भारतीयोंकी भावनाकी कद्र नहीं करती तो भारतीय अपने ईश्वर और अपने प्रति सच्चे रहेंगे या नहीं और अपने सर्वस्व का बलिदान करेंगे या नहीं।

आपका आदि,
मो० क० गांधी

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन,२४-८-१९०७

[१] देखिए "पत्र: जनरल स्मटसके निजी सचिवको", पृष्ठ १४८-४९ तथा १६४-६५।

[२]देखिए पत्र: जनरल स्मटसके निजी सचिवको", पृष्ठ १६४ के साथ दी गई पादटिप्पणी।

७-१२
  1. १.
  2. २.