आपकी सम्पादकीय टिप्पणीके दूसरे हिस्सेके बारेमें मैं इतना ही कह सकता हूँ कि यदि मेरे देशवासियोंको सम्मानास्पद दर्जेका आश्वासन [नहीं][१] दिया गया तो, चाहे वे कितने ही गिरे हुए हों, अपने आत्माभिमानकी बलि देने और अपनी गम्भीर प्रतिज्ञाको तोड़नेके मुकाबले जेल, देश-निकाला और उसी प्रकारकी अन्य विपत्तियाँ उनके लिए वरदान-स्वरूप होंगी। और एक बातके लिए मैं आपको जोर देकर आश्वस्त कर सकता हूँ कि ऐसा एक भी भारतीय नहीं है जो इस अधिनियमको अपने हृदय-तलसे नापसन्द नहीं करता। मैं उनमें से अधिकांश लोगोंको जानता हूँ जिन्होंने प्रिटोरियामें इस अधिनियमके अन्तर्गत पंजीयन स्वीकार किया है, और मैं यह भी जानता है कि वे इसे अपनी राष्ट्रीयता और ईश्वरके प्रति अपराध मानते हैं; और फिर भी उन्होंने ऐसा किया, क्योंकि, उनके ही शब्दोंमें, उन्होंने पैसेकी कीमत प्रतिष्ठासे ज्यादा आँकी।
आपका आदि,
मो० क० गांधी
स्टार, २०-८-१९०७
१३७. भारतीय मुसलमानोंसे अपील[२]
जोहानिसबर्ग
अगस्त १९, १९०७
हम निम्न हस्ताक्षरकर्ता मुसलमान व्यापारी और ट्रान्सवालके हमीदिया इस्लामिया अंजुमन के अध्यक्ष, मन्त्री और सदस्य, इसके द्वारा आपको उस स्थितिका खयाल कराना चाहते हैं, जो एशियाई कानून संशोधक विधेयकके अन्तर्गत मुसलमान भारतीयोंकी हो जायेगी। हम माने लेते हैं कि अधिनियमके विरुद्ध हमारी जो मुख्य आपत्तियाँ हैं उनको आपने जान लिया है। किन्तु हम आपका ध्यान विशेष रूपसे एक आपत्तिकी ओर आकर्षित करेंगे, जिसका प्रभाव हमपर मुसलमान होनेके नाते पड़ता है। यह वह खण्ड है जो तुर्की के मुसलमानोंपर लागू होता है, जब कि तुर्कीके ईसाई और यहूदी उससे मुक्त हैं।
- १. वह इस प्रकार था: "...श्री गांधी और उनके सहयोगी नेताओंने यह माननेकी भयंकर भूल की है कि इंग्लिश रेडिफल नानकन्फमिस्ट लोगोंसे उधार लिये हुए उनके दाँव पंचोंका ब्रिटिश उदारदलीय सज्जन किसी भी हद तक जाकर समर्थन करेंगे। उन्होंने अब अपनी भूल देख ली है और इसलिए हमें भरोसा है कि वे अपने असंगत रवैयेसे बाज आयेगे, या कमसे-कम भविष्यमें अपने देशभाइयोंके असंस्कृत हिस्सेको उसकी अपनी सामान्य बुद्धि के मुताबिक चलनेके लिए छोड़ देंगे। अगर उसमें से ज्यादातर लोग कानूनकी मुखालिफत करना और उसके परिणाम-जिनमें व्यापार करनेके अधिकारोंका खात्मा भी शामिल है-भोगना पसन्द करें तो ट्रान्सवाल सरकार कानूनी और नेतिक दृष्टिसे कसूरवार नहीं ठहरेगी..."
- २. इंडियन ओपिनियनके पाठमें यह शब्द आया है। स्पष्ट है, स्टारमें यह भूलसे छूट गया।
- ३. कदाचित् यह गांधीजी द्वारा लिखी गई थी, क्योंकि वे इसको भारतमें प्रचारित कराना चाहते थे; देखिए “पाठकोंको सूचना", पृष्ठ १९० और "हमीदिया इस्लामिया अंजुमनका पत्र", पृष्ठ १९४।