१३८. पत्र : 'स्टार' को
जोहानिसबर्ग
अगस्त २०, १९०७
सम्पादक
'स्टार'
मैं एक बार फिर, अनिच्छापूर्वक, आपके सौजन्यका लाभ उठानेके लिए विवश हुआ हूँ। क्या मैं कह सकता हूँ कि आपने अब भी पुरी तरहसे मसविदेको नहीं पढ़ा है? मैंने जो सुझाव दिये हैं उनका अर्थ यह नहीं है कि एशियाई अधिनियमकी कुछ धाराओंको रद कर दिया जाये और इस प्रकार कुछ अंश तो उस अधिनियमसे और अधिकांश प्रवासी विधेयकसे रख लिये जायें, बल्कि यह है कि पहलेवाले अधिनियमका सर्वथा अन्त कर दिया जाये; क्योंकि, मेरी रायमें, मेरे प्रस्तावसे, मेरे देशवासियोंको बहुत नाराज किये बिना ही, उपनिवेशियोंको सब-कुछ मिल जाता है। मेरे लिए यह सम्भव नहीं है कि मैंने और मेरे साथियोंने जो कुछ लिखा है, उसके लम्बे उद्धरणोंके अध्ययनका भार आपपर डालकर यह दिखाऊँ कि यद्यपि इस अत्यन्त आपत्तिजनक अधिनियममें अँगुलियोंके निशानोंका सवाल हमेशा एक बड़ी गम्भीर बात मानी गई है, तथापि जबतक उसका प्रयोग एक अनिवार्य शर्तके रूपमें नहीं होगा तबतक यह प्रश्न कोई सर्वोपरि महत्त्वका विषय नहीं रहेगा। आपको यह भी आसानीसे याद आ जायेगा कि हमने स्वेच्छासे उन अनुमतिपत्रोंपर अंगुलियोंके निशान दिये थे, जो लॉर्ड मिलनरकी सूचनाके अनुसार जारी किये गये थे। उस समय यह स्वेच्छासे करनेकी बात थी और वह भी सिर्फ एक अंगठेका निशान लगानेकी। एशियाई अधिनियममें दसों अँगुलियोंके निशान देनेका प्रश्न है और वह भी एक बार नहीं, बल्कि जितनी बार अधिकारीगण लेना चाहें। यदि मैं अपने देशवासियोंको दसों अंगुलियोंके निशान स्वेच्छासे देनेकी सलाह दे भी दूं तो मैं समझता हूँ कि मेरी सलाह तुरन्त अस्वीकार कर दी जायेगी। लेकिन मुझे और कुछ कहनेकी जरूरत नहीं है। मुझे खेद है कि भारतीयोंके पक्षको अब भी गम्भीर और निर्विकार भावसे नहीं समझा जा रहा है। मेरे देशवासी केवल इतना कह सकते हैं कि भले ही सारा गोरा ट्रान्सवाल हमारे विरुद्ध हो, ईश्वर अब भी हमारे साथ है।
आपका आदि,
मो० क० गांधी
स्टार, २१-८-१९०७
[१] यह बादमें २४-८-१९०७ के इंडियन ओपिनियनमें उद्धृत किया गया था।
[२] देखिए “पत्र: जनरल स्मटसके निजी सचिवको", पृष्ठ १४८-४९।
[३] देखिए खण्ड ३, पृष्ठ २२४-३१।