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१५८. बहुत सावधान रहनेकी आवश्यकता

इस समय जब कि बहुत लोगोंकी नजर ट्रान्सवालके भारतीयोंकी ओर लगी हुई है, भारतीय समाजकी दुर्बलताकी सूचना मिली है। यह समय समाजके अन्दर छिपी हुई गन्दगीको प्रकट करनेका है, उसे दबानेका नहीं। हम मानते हैं कि दबानेवाला देशद्रोही होगा।

भारतीय समाजमें मुख्यत: सूरती, मेमन, कोंकणी, मुसलमान, पारसी, तथा हिन्दू हैं। हमने जैसा सुना है उसके अनुसार मेमन लोगों तथा कोंकणियोंका बहुत बड़ा हिस्सा कानूनकी इस लड़ाईमें पस्त-हिम्मत हो गया है। कहा जाता है कि वे अब कानून स्वीकार करनेके लिए उद्यत हैं। किन्तु स्वीकार करनेके पहले वे कानूनमें सरकारसे कुछ संशोधन करवाना चाहते हैं। उन संशोधनोंका मसिवदा हमने देखा है। उसको छापनेमें भी हमें शर्म महसूस होती है। उस मसविदेको हम अपने हाथों अपनी गुलामी माँगनेका चिट्ठा मानते हैं। उसमें जो संशोधन माँगे गये हैं, वे संशोधन हैं ही नहीं। माँगकी भाषा इतनी लचर है कि उसका अर्थ यही होता है कि भारतीय समाजके बहुतेरे अग्रणी नये कानूनके खिलाफ थे ही नहीं। अँगुलियाँ लगाना वे स्वीकार करते हैं। तुर्की मुसलमानोंका अपमान हो उसमें उन्हें हर्ज नहीं है। माँग केवल इतनी की गई है कि अच्छे भारतीयोंकी जाँचके लिए खास व्यक्ति नियुक्त किये जायें और वे उनकी अँगुलियाँ खानगी तौरसे लगवायें। पुराने परवानेवाले यदि हस्ताक्षर कर सकें तो उनसे अँगुलियाँ न लगवाई जायें। मुद्दती अनुमतिपत्र जैसे आज दिये जाते हैं वैसे दिये जायें और बच्चोंकी अँगुलियोंकी निशानी १६ वर्षकी उम्र हो जाने के बाद ली जाये।

इन माँगोंमें एक भी माँग ऐसी नहीं है कि जिसके लिए कानूनकी बात तो दूर रही, धाराओंमें भी कहीं संशोधन करना पड़े। ऐसे पत्रोंके जवाब में स्मट्स साहब कह सकते हैं कि "बहुत अच्छा"। अर्थात् जो उस पत्रसे खुश हों वे तुरन्त गुलामीका पट्टा रूपी पंजीयन पत्र ले लें। मसविदेमें यह भी कहा गया है कि कानूनके सामने भारतीय तो मोमके समान हैं। हम मानते हैं कि ईश्वर या खुदाके अस्तित्वपर विश्वास करनेवालेके मुँहसे यह बात निकल ही नहीं सकती। मनुष्य केवल खुदाके सामने ही मोम है।

हमें यह कहते खुशी होती है कि उपर्युक्त पत्र श्री स्मट्सके नाम नहीं लिखा गया। न हम यही कहना चाहते हैं कि उस पत्रको मेमन, कोंकणी या दूसरे किन्हीं भारतीयोंने मंजूर किया है। इसे सार्वजनिक रूपसे प्रकट करनेका मतलब इतना ही है कि यह पौधा उगनेके साथ ही जला दिया गया है। फिर भी यह भरोसा नहीं कि अब और वैसा प्रयत्न नहीं किया जायेगा। डरा हुआ मनुष्य हवाको काटनेको तैयार हो जाता है। टेकड़ीसे लुढ़कनेपर डरके मारे कौन तिनकेकी ओर नहीं झपटता? ट्रान्सवालमें कुछ लोग उसी तरहके तिनके दिखाई दे रहे हैं। ऐसे भारतीयोंको हम सलाह देते हैं कि वे कानूनकी खींचतान करनेके बजाय तुरन्त उसकी शरण हो जायें और पंजीयन करवा लें। उसमें उनका दोष अधिक नहीं माना जायेगा। किन्तु यदि वे ऐसे पत्र लिखवायेंगे जिनसे समाजको बट्टा लगता है, तो माना जायेगा कि उन्होंने श्री हाजी इब्राहीम और खमीसाकी अपेक्षा ज्यादा नुकसान पहुँचाया है, और पहुँचायेंगे भी। श्री हाजी इब्राहीम तथा उनके साथियोंने डरके मारे तथा सह न सकनेके कारण काला मुँह करवाया था। किन्तु जो उपर्युक्त पत्रके समान पत्र लिखवायेंगे वे अपना मुँह काला करवाने के साथ-साथ