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पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 7.pdf/२४५

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सविनय अवज्ञाका धर्म


ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीयोंकी भी यही स्थिति है। वे कानूनपरायण हैं और अबतक उन्हें जो प्रमाणपत्र मिला हुआ है उसमें, इस एशियाई कानूनके मातहत पंजीयन न करानेसे कोई कमी नहीं आयेगी; क्योंकि इसे उनकी अन्तरात्मा उनके पौरुषके लिए अपमानजनक और उनके धर्मके हकमें घृणित समझकर अस्वीकार करती है। यह सम्भव है कि सत्याग्रहके सिद्धान्तकी अतिकी जाये, लेकिन यह बात कानून माननेके सिद्धान्तपर भी उतनी ही लागू होती है। हम शब्दोंमें इस विभाजन-रेखाको उतने सही तौरपर नहीं दे सकते जितना कि थोरोने अमरीकी सरकारके बारेमें बोलते हुए कहा था:

अगर कोई मुझसे कहे कि यह [अमरीकी] सरकार बुरी है, क्योंकि यह अपने बन्दरगाहोंमें आनेवाले कुछ विदेशी वस्तुओंपर कर वसूल करती है तो, सम्भव है, मैं इस बारेमें कोई बखेड़ा न करूँ, क्योंकि मैं उन वस्तुओंके बगैर काम चला सकता हूँ। सभी यन्त्रोंमें घर्षण[] होता है [वैसे ही सब शासन-यन्त्रोंमें भी होता है] और शायद इससे बुराईको कम करनेमें काफी सहायता मिलती है। बहरहाल, इसी बातको लेकर हलचल करना एक बहुत बुरी बात है। लेकिन, जब घर्षण अपने [शासन-] यन्त्रपर हावी हो जाये और जुल्म और लूटका बोलबाला हो तब तो मैं यही कहूँगा कि हमें ऐसे [शासन-] यंत्रकी अब जरूरत ही नहीं है।

एशियाई पंजीयन अधिनियम ब्रिटिश भारतीयोंके लिए सिर्फ ऐसा कानून ही नहीं है जिसमें थोड़ी-सी बुराई हो या, थोरोके शब्दों में, यह एक ऐसा यन्त्र है जिसमें घर्षण है; लेकिन यह तो बुराईको ही वैध बनाना है, या घर्षणका साधन बनाना है। इस तरह बुराईका विरोध करना एक ऐसा पवित्र कर्तव्य है, जिसकी ओरसे कोई भी मनुष्य निरपेक्ष भावसे अपना मुँह नहीं मोड़ सकता है। और केंटरबरीके आर्क बिशपकी तरह ब्रिटिश भारतीयों के लिए भी इस बातका फैसला उनकी अन्तरात्माको ही करना चाहिए, और उन्होंने फैसला कर भी लिया है, कि वे एशियाई कानूनको मानें या न मानें, चाहे उसके लिए जो भी कीमत चुकानी पड़े।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, ७-९-१९०७
  1. स्वयं गाँधीजीने इसका अनुवाद 'जंग' किया है। देखिए "कानूनका विरोध—एक कर्तव्य [२]", पृष्ठ २३१, अनुच्छेद २।