१८०. न घरके न घाटके
हम अन्यत्र एक पत्र[१] छाप रहे हैं जो एशियाइयोंके पंजीयकको उन कतिपय भारतीयोंके बारेमें लिखा गया है, जो ट्रान्सवाल खाली कर देनेकी सूचना मिलनेपर और डेलागोआ-बेमें प्रवेश करते हुए, बाहर निकाल दिये गये हैं। उन लोगोंको ट्रान्सवालमें रहते हुए कमसे-कम एक महीने के कारावास की सजा होने का खतरा है। उनका कहना है कि वे इतने गरीब हैं कि नेटाल जानेके जहाजी-पासोंके लिए रकमें जमा नहीं करा सकते। अब वे क्या करें? इसपर अपनी राय देने से पूर्व हम सरकारी जवाबके इन्तजारमें हैं। इसी बीच, जो तथ्य सामने आये हैं उनसे पता चलता है कि एशियाई पंजीयन अधिनियमका भारतीयोंके लिए क्या मतलब है।
इंडियन ओपिनियन, १४-९-१९०७
१८१. क्या दशा होगी?
यदि इतनी मेहनत करनेके बाद भारतीय कर्णधार तूफानी लहरोंको देखकर जेलकी लड़ाई रूपी नौका छोड़ देंगे तो क्या दशा होगी, इसका उदाहरण श्री रिचकी ओरसे प्राप्त पत्रसे सब समझ सकेंगे। फिर भी यह किस तरह, इसपर विचार कर लें। दक्षिण आफ्रिका ब्रिटिश भारतीय समितिका हमपर विश्वास जम गया है। इसलिए वह समिति अब खुलेआम सहानुभूति बताने लगी है। समितिके नामसे श्री रिचने प्रधानमन्त्रीको पत्र[२] लिखा है। उसमें हम जो कुछ माँग रहे हैं, उसका हू-ब-हू चित्र खींचा है। यह लड़ाई मामूली फेरफारके लिए नहीं लड़ी जा रही है। लोहेकी बेड़ीपर जरा-सा मुलम्मा चढ़ानेके लिए हम पानीके समान पैसा नहीं बहा रहे हैं। श्री रिचने साफ कहा है कि कानून रद किया जाना चाहिए। इसके अलावा और भी जो माँगें की हैं उन्हें पाठक ध्यानपूर्वक देख लें। अब किनारेपर पहुँची हुई नौकाको यदि भारतीय कर्णधार छोड़ देंगे तो उन्हें कितनी हाय लगेगी! वे भारतीयोंके नामके—भारतीयोंकी लाजके रखवाले हैं। उन्होंने आगसे बाजी लगाई है। उसमें यदि थोड़ा-बहुत चटका लगता है तो डरना नहीं चाहिए। डरेगा सो मरेगा।
'सटरडे रिव्यू' के सम्पादकने जो कुछ कहा है उसपर विचार करें। वह बहुत ही प्रभावशाली और पुराना अखबार है। वह यद्यपि अनुदार दलका है, फिर भी जोशके साथ लिखता है कि भारतीय समाजने कानूनके वश न होने और जेल जानेका जो प्रस्ताव पास किया है, वह ठीक है। अंग्रेजी राज्य उन्हें छोड़ दे तो यह बड़ी बदनामीकी बात होगी। यहाँतक पहुँच जानेके बाद क्या अब भारतीय नेता यह दिखायेंगे कि उनकी लड़ाई ऊपर