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"कानूनके सामने मोम"

ही ऊपर थी? क्या अपने पैसेके लोभमें अंधे होकर वे हजारोंके पेटमें भाले भोंकेंगे और सारी प्रजाको जनानी और नकटी साबित करेंगे?

'नेशन' बहुत स्वतन्त्र अखबार माना जाता है। उसका उदार दलपर पूरा प्रभाव है। उसके नाम एक परिचित लिखावटवाले अंग्रेजने लिखा है कि भारतमें जितनी हाय-तोबा और नाराजी ट्रान्सवालके भारतीयोंपर होनेवाले जुल्मोंके कारण हो रही है उतनी और किसी बातसे नहीं हुई। इससे सिद्ध होता है कि इस लड़ाईमें यदि भारतीय कायर बनेंगे तो वे भारतको नुकसान पहुँचायेंगे। ट्रान्सवालके भारतीयोंने जो निश्चय किया है और जिसके बारेमें इतना प्रचार हुआ वैसा पहले कभी भारत में भी नहीं हुआ। अतः भारतीय नेताओंके लिए बहुत जरूरी है कि वे अपनी जिम्मेदारी समझें।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, १४-९-१९०७

१८२. "कानूनके सामने मोम"

प्रिटोरिया आदि नगरोंके "अग्रणी भारतीयों" की ओरसे जो अर्जी[१] भेजी गई है उसे हम बहुत शर्म और अफसोसके साथ इस अंक प्रकाशित कर रहे हैं। इस कदमको हम बहुत कमजोर मानते हैं, और इसका मुख्य दोष श्री हाजी कासिमको देते हैं। उनका नाम प्रत्येक भारतीय मण्डलमें आता रहता है इसलिए उसे प्रकाशित करने में हमें झिझक नहीं है, बल्कि प्रकाशित करना हम एक कर्तव्य समझते हैं। यद्यपि हम श्री हाजी कासिमको दोष दे रहे हैं फिर भी हम समझते हैं कि उनकी जैसी स्थितिके दूसरे भारतीय इस प्रकार कदापि न करते, सो नहीं कहा जा सकता। इसलिए उनकी बदनामीको हम सभीकी बदनामी समझते हैं।

अर्जीकी भाषा दीनताभरी और गुलामोंको फबनेवाली है। हम "कानूनके सामने मोम" हैं इस प्रकारके शब्दोंका उपयोग करने में, हम समझते हैं, हमने खुदाके प्रति अपराध किया है। हमारी बागडोर थामनेवाला वह एक ही है, तब उसीको शोभा देनेवाली भाषा हम अत्याचारी शासकोंके लिए कैसे बरत सकते हैं?

जो माँगें की गई हैं वे बेसिर-पैरकी हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि वास्तविक लड़ाईको हमने समझा ही नहीं है। ऐसा ही लेख हम पहले भी दे चुके हैं। अब हम श्री हाजी कासिम तथा उनके साथियोंसे इतना ही पूछते हैं कि क्या उनकी समझमें इतनी-सी बात नहीं आती कि उनकी तुच्छ अर्जीके कारण भारतीयोंकी प्रतिष्ठा घटती है और उनकी टेकको धक्का पहुँचता है? यदि यह बात ठीक हो तो ऐसा काम करने के बाद बचे हुए पैसेको वे किस कामका मानेंगे? इसलिए अब भी यदि समय हो तो हमारी उनसे विनती है कि समाजकी भलाईके लिए वे अपना बलिदान दें। क्या जैसे सरकार भारतीयोंकी अर्जी नहीं सुनती श्री हाजी कासिमकी सरकार भी नहीं सुनेगी?

  1. यहाँ नहीं दी गई है।
    देखिए "जोहानिसबर्गकी चिट्ठी", पृष्ठ २२३-२६।