यदि ऐसा ही हो तो, श्री हाजी कासिमकी प्रजासे, यानी उनके शब्दोंपर चलनेवाले भारतीयोंसे, हमारा कहना है कि इस समय दूसरोंकी ओर न देखकर अपनी ही हिम्मत और खुदापर नजर रखनी है। हरएकको किसी भी भारतीयका पक्ष न लेकर खुदाका पक्ष लेना है। उसीके हाथमें अपनी लाज और आबरू रखकर जमकर काम करना है। हमें आशा है कि प्रत्येक भारतीय स्वतन्त्र रूपसे विचार करेगा।
इंडियन ओपिनियन, १४-९-१९०७
१८३. रिचका प्रयास
श्री रिचने हद कर दी है। उनका परिश्रम अगाध है। उन्होंने 'टाइम्स' के नाम एक पत्र लिखा था जो तारसे प्राप्त हुआ है। उसका अनुवाद[१] अन्यत्र दिया गया है। वह पढ़ने योग्य है।
एक ओरसे कोई-कोई भारतीय लड़ाई छोड़कर ढीले पड़ने लगे हैं। दूसरी ओरसे श्री रिच और समिति हमारे लिए पूरी ताकतसे प्रयत्नरत हैं। श्री रिचके पत्रपर टीका करते हुए 'लन्दन टाइम्स' ने ट्रान्सवाल सरकारको जो कोड़े लगाये हैं उनका प्रभाव होना ही चाहिए। विलायत में जब इतने सुन्दर ढंगसे लड़ाई की जा रही है तब ट्रान्सवालके भारतीयोंको तो हिल-मिलकर साहसके साथ खुदापर भरोसा रखकर अपने निर्णयको निबाहना ही है। यह स्पष्ट हिसाब है। हमारी प्रार्थना है कि इस बातको कोई भारतीय न भूले।
इंडियन ओपिनियन, १४-९-१९०७
१८४. भारतीयोंकी परेशानी
चार भारतीयोंको ट्रान्सवाल छोड़नेका आदेश दिया गया था। डेलागोआ-वे जाते हुए उनको ट्रान्सवालकी सीमासे आगे नहीं बढ़ने दिया गया और जेलमें रखकर उन्हें बड़ा कष्ट पहुँचाया गया। इसके बारेमें श्री गांधीने पंजीयकको पत्र[२] भेजा है। वह हमने अन्यत्र दिया है। ये लोग ट्रान्सवालसे बाहर जानेके लिए राजी हैं, फिर भी जा नहीं सकते। यदि ट्रान्सवालमें रहते हैं तो एक महीनेकी जेलकी सजाके पात्र बनते हैं। इस हालतमें वे क्या करें? भारतीयोंको ढीला समझकर सरकार उन्हें परेशान करना चाहती है, इसके सिवा इसका और क्या अर्थ हो सकता है? एशियाई पंजीयन कानूनको लागू करके सरकार क्या करना चाहती है यह इस मामलेसे साफ हो जाता है। क्या भारतीय लोग अब भी नरम रहकर यह सब सहन करते रहेंगे?
इंडियन ओपिनियन, १४-९-१९०७