मैं अपने पड़ोसियोंसे बातचीत करता हूँ तो उनके कथनसे पता चलता है कि उन्हें भय है, यदि वे विरोध करें तो उनका सब-कुछ चला जायेगा और उनके पत्नी-बच्चे दर-दरकी ठोकरें खायेंगे। यदि मुझे स्वयं अपने लिए या अपने परिवारके लिए राज्यपर निर्भर रहना पड़े तो मैं निराश हो जाऊँगा।
मुझे लगता है कि अत्याचारी राज्यके सामने झुकना लज्जाजनक है। उसका विरोध करना आसान और अच्छा है। आज छः वर्षसे मैंने कर नहीं दिया। इस कारण एक बार एक रातके लिए मुझे जेलमें रखा गया था। मैंने जब इस कैदखानेकी दीवारों और लोहेके दरवाजोंको ध्यानसे देखा तब मुझे राज्यकी मूर्खताका अनुमान हुआ। क्योंकि मुझे कैद करनेवालोंकी तो यही धारणा होगी कि मैं केवल हड्डी और मांसका बना हुआ हूँ। वे मूर्ख यह नहीं जानते कि मैं दीवारोंसे घिरा हुआ होनेपर भी औरोंकी अपेक्षा मुक्त हूँ। मुझे नहीं लगा कि मैं कैदमें हूँ। मुझे तो यही लगा कि जो बाहर हैं उन्हींकी स्थिति कैदीकी है। वे मुझ तक नहीं पहुँच सके इसलिए उन्होंने मेरे शरीरको सजा दी। ऐसा करनेसे मैं अधिक मुक्त हो गया और राज्य शासनके प्रति मेरे विचार और भी भयंकर बन गये। मैंने देखा कि छोटे बालक जब किसी मनुष्यका कुछ नहीं बिगाड़ सकते तब उसके कुत्तेको सताते हैं। उसी प्रकार राज्य मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता इसलिए मेरे शरीरको तकलीफ देता है। मैंने यह भी देखा कि शरीरको तकलीफ देनेमें भी राज्य डरता था। इसलिए राज्यके प्रति मेरे मनमें जो कुछ सम्मान था वह चला गया।[१]
इंडियन ओपिनियन, १४-९-१९०७
१८६. जोहानिसबर्गकी चिट्ठी
अभागे भारतीय
भारतीय जहाँ भी हों वहीं उनकी दुर्दशा है। अभी अमेरिकासे आवाज आई है कि वॉशिंग्टनमें काम करनेवाले मजदूर भारतीयोंकी नामर्द गोरोंने पिटाई की है। उनमें से चार भारतीय जख्मी हुए हैं और शेषमें भगदड़ मची हुई है। मारनेवाले इन गोरोंको मैं नामर्द मानता हूँ। क्योंकि, उनमें से हजारों लोग निरपराध मजदूरोंपर चढ़ दौड़े, यह कोई बहादुरीका काम नहीं माना जायेगा। जो अपनेसे कमजोरपर जुल्म करता है वह नामर्द है। हमारी कहावत है कि कुम्हार नाराज होता है तो गधेके कान उमेठता है। ये नामर्द गोरे भी वैसे ही हैं। ये लोग चूँकि उन गोरोंका कुछ नहीं कर सकते जो इन भारतीयोंको नौकर रखते हैं, इसलिए नौकरोंपर अत्याचार करते हैं। बहादुर तो उसे ही कहेंगे जो अपनेसे ज्यादा बलवानका मुकाबला करता है।
वाशिंग्टनके महापौरने भारतीय मजदूरोंसे कहलवाया है कि वे उनकी रक्षा करेंगे, वे अब खुशीसे अपनी नौकरियोंपर वापस चले जायें। उन्होंने इन मजदूरोंकी रक्षाके लिए विशेष
- ↑ इसके बाद यह सम्पादकीय टिप्पणी दी गई थी: 'चालू तथा गतांकमें आया हुआ यह लेख पुस्तिकाके रूपमें आगामी सप्ताह में प्रकाशित होगा। मूल्य ६ पेनी, डाकखर्च सहित ७ पेनी'।