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पत्र: डब्ल्यू॰ वी॰ हल्स्टेनको

सूरती मुसलमानों और हिन्दुओंमें काला टीका लगवानेकी हलचल हो रही है। कसौटीका समय जैसे-जैसे नजदीक आयेगा, वैसे-वैसे ये अफवाहें उड़ती ही रहेंगी। डरपोक अपने डरकी छूत दूसरेको लगा देते हैं।

बेहूदा धमकी

देखने में आता है कि हममें ऐसे भी भारतीय हैं जो अपने घरवालोंसे नाराज होते हैं तो कहते हैं: "यदि तू अमुक काम नहीं करेगा तो मैं पंजीकृत हो जाऊँगा।" ऐसी धमकीपर हँसना और रोना दोनों आ सकते हैं। मेरे लिए यदि तुम कुछ न करोगे तो मैं गढ़ेमें गिर पड़ूँगा। इसमें तुम्हारा क्या बिगड़ेगा सो समझ में नहीं आता। इसलिए जिन्हें ऐसी धमकी दी जाये वे उन 'शूरवीरों' से साफ कह दें कि गुलामीके कार्यालयका दरवाजा सदा ही खुला है। मैं स्वयं तो चाहता हूँ कि जो अपनी मर्दानगी खो बैठे हैं वे पंजीकृत हो जायें। इससे सच्चे शत-प्रतिशत सच्चे उतरेंगे। 'ब्लूमफॉटीन फ्रेंड' नामक पत्रने सच कहा है कि ट्रान्सवालके जहरी कानूनके सामने कायर झुक जायेंगे और मर्द खुले सिर जूझेंगे। हमने जेल सम्बन्धी पुरस्कृत गीतमें देखा है कि "क्या हम चोर, चुगलखोर, ठग, बदमाश बनकर रहें?" मुझे अत्यन्त ही खेदपूर्वक कहना पड़ता है कि वह समय आ रहा है जब कानूनकी शरण जानेवालोंकी कतार यही मानी जायेगी।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, १४-९-१९०७

१८७. पत्र: डब्ल्यू॰ वी॰ हल्स्टेनको

[जोहानिसबर्ग]
सितम्बर १७, १९०७

सर विलियम वॉन हल्स्टेन, संसद सदस्य

पो॰ ऑ॰ बॉक्स ४६
जोहानिसबर्ग

महोदय,

गत १४ तारीखको ब्रिटिश भारतीय संघके अवैतनिक सहायक मन्त्रीने जो पत्र आपकी सेवामें भेजा था, उसके बारे में आपके गत १६ तारीखके पत्रकी प्राप्ति स्वीकार करनेका सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ है।

मेरा संघ जिस समाजका प्रतिनिधि है उसको आपने यह सलाह देनेकी कृपा की है कि वह इस उपनिवेशके कानूनोंके पालन करने में सहायता करे। मैं इस सत्यकी ओर आपका ध्यान दिलाना चाहता हूँ कि अभीतक इस समाजने वैसा ही किया है और तबतक वैसा ही बराबर करता रहेगा, जबतक कि ऐसे कानून उस समाजकी धार्मिक भावनाओंको ठेस नहीं