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१९२. ट्रान्सवालकी लड़ाई

इस बार हमने श्री रिच द्वारा भेजे गये पत्रोंका अनुवाद दिया है। उसपर प्रत्येक पाठकको पूरा ध्यान देना चाहिए। विलायतके नये कानूनके सम्बन्धमें बहुत बड़ी लड़ाई चल रही है। इस लड़ाईकी जड़में केवल भारतीयोंका साहस है। विलायतके मुख्य व्यक्तियोंको कुछ-कुछ भरोसा होने लगा है कि भारतीय जो-कुछ कह रहे हैं उसे करेंगे भी। ऋण-विधेयक (लोन बिल) के समय भारतीय सवालोंको लेकर जैसी चर्चा हुई वैसी चर्चा हमने कभी नहीं देखी। यदि हम कहें कि दोनों पक्षोंके अधिकारोंके सम्बन्धमें इतने जोशसे बोलनेका पिछले पचास वर्षोंमें यह पहला उदाहरण है, तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। श्री लिटिलटन अनुदार दलके नेता हैं। वे कभी उपनिवेश मन्त्री थे। उन्होंने बहुत ही जोशसे हमारे हकोंका समर्थन किया था। सर चार्ल्स डिल्क सुविख्यात उदारदलीय सदस्य हैं। एक बार उनके प्रधान मन्त्री बनने की सम्भावना थी। उन्होंने स्पष्ट कहा कि बड़ी सरकारको बीचमें आना ही चाहिए। इसके अतिरिक्त श्री बोनरला, श्री कॉक्स, श्री ओ॰ ग्रेडी आदि सदस्योंने जो भाषण दिये वे सब हमें प्रोत्साहित करनेवाले हैं।

समाचारपत्रोंको देखा जाये तो 'लन्दन टाइम्स', 'यॉर्कशायर पोस्ट', 'आब्जर्वर', और 'पाल माल गज़ट' आदि समाचारपत्रोंने हमारे पक्षमें सख्त लेख लिखे हैं। सर चार्ल्स ब्रूसने तो हद कर दी है। उन्होंने बड़ी सरकारको जबरदस्त तमाचा लगाया है। भारतीय समाजने पंजीयन कार्यालयका बहिष्कार किया है। उतने ही से यदि यह सब हुआ है तो जब भारतीय जुल्मी तरीकेसे जेल ले जाये जायेंगे तब क्या विलायत-भरमें शोर न मच जायेगा? फिर, सर हेनरीके उत्तरपर विचार करें तो भी स्पष्ट है कि उन्होंने बीचमें पड़ने से इनकार नहीं किया है, बल्कि इतना कहा है कि फिलहाल वैसा समय नहीं आया है। इसका अर्थ यही होगा कि भारतीय समाज यदि आखिरतक जोर कायम रखकर जेल या निर्वासनका कष्ट सहन करेगा, तो बड़ी सरकार चुप नहीं बैठेगी। इन लक्षणोंसे भी, जिन्हें सरसरी तौरसे देखने वाला व्यक्ति भी देख सकता है, यदि हम न समझें और हिम्मत न रखें तो हमारी जितनी बेइज्जती की जाये उतनी कम है। इसीके साथ हमें यह भी याद रखना चाहिए कि यदि हम इस लड़ाईको अब छोड़ देंगे तो जो शक्ति हमारे पक्षमें लगाई जा रही है वही शक्ति हमारे विरोधमें लगाई जायेगी। हमें इसमें खुदाका हाथ दिखाई दे रहा है। खुदा सदैव मनुष्य अथवा अन्य साधनोंके द्वारा ही मदद करता है। अतः भारतीयो, जागते रहो।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, २१-९-१९०७
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