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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


क्या स्त्रियोंके अँगूठे लिये जा सकते हैं?

फोक्सरस्टसे श्री मूसा इब्राहीम मंसूर लिखते हैं कि एक भारतीय स्त्रीसे पुलिसने अनुमतिपत्र माँगा। वह उसने दिखा दिया। फिर उससे अँगूठेकी निशानी माँगी गई। वह भी उसने अपने सेठके हुक्मसे दे दी। उस स्त्रीने अनुमतिपत्र कहाँसे दिया, यह समझमें नहीं आया। स्त्रियोंकी अँगूठा-निशानी लेनेका पुलिसको बिलकुल अधिकार न था। पूनियाके मामले में[१] निर्णय हो चुका है कि स्त्रियोंको अनुमतिपत्रकी जरूरत नहीं है। इस सम्बन्ध में दूसरी कार्रवाई करनेकी आवश्यकता मैं नहीं समझता। लेकिन जहाँ इस प्रकार होता हो वहाँ चेतावनी देना ठीक है।

नुकसान कैसे सहन हो?

मुझसे कहा गया है कि नये कानूनकी लड़ाईमें जो नुकसान होगा वह किस प्रकार सहन जाये, इस सवालका मैं जवाब दूं। पहले तो जसे हम नुकसान मानते हैं वह नुकसान नहीं, बल्कि फायदा है। हम सौ रुपयेकी गाड़ी लेते हैं तो उसे नुकसान नहीं मानते, बल्कि यह कहते हैं कि हमें अपने पैसेके बदलेमें यह चीज मिली है। उसी प्रकार हमें अपने पैसे देकर अपने हक खरीदने हैं। जिसे यह विश्वास हो कि ये हक मिलेंगे ही, वह पैसे देने में हिचकेगा नहीं। क्योंकि उसे अपने पैसेका बदला मिलनेका भरोसा है। यह ठीक है कि किसी-किसीको यह भरोसा नहीं होगा कि उसे हक मिलेंगे ही। किन्तु फिलहाल तो ऐसे व्यक्ति भी पैसे छोड़ेंगे ही, और सो भी हकोंकी आशामें ही। हम व्यापारमें सदा ही ऐसी जोखिम उठाते हैं। सट्टमें हार जाते हैं, तो उससे व्यापार बन्द नहीं कर देते। इस कुंजीको याद रखकर यदि हम लड़ाईमें शामिल होंगे तो नुकसानकी बात नहीं करेंगे। महत्त्वकी बात यह है कि हककी लड़ाई समाजके लिए है, लेकिन संकुचित मनके कारण हम यह नहीं समझ पा रहे हैं कि समाजका फायदा हमारा फायदा हैं। इसके अलावा और भी विचार करें तो देखेंगे कि जेमिसनके हमलेके[२] समय भारतीय अपने पैसे खो बैठे थे; और वैसा ही लड़ाईके[३] समय हुआ था। किन्तु वह लाचारीके कारण हुआ था, इसलिए किसीने विचार नहीं किया। तब क्या अब पैसेकी जोखिमके कारण समाजके भलेकी लड़ाई हम छोड़ दें?

अखबार पढ़कर क्या करें?

इस सवालका जवाब देनेके लिए भी मुझसे कहा गया है। मेरी रायमें तो 'ओपिनियन' इस समय इतना महत्त्वपूर्ण है कि हरएकको उसकी फाइल रखनी चाहिए। लेकिन जिन्हें फाइल रखनेका शौक न हो, या जिन्हें आलस्य आता हो, ऐसे लोगोंको अखबार पढ़कर तुरन्त ही अपने सगे-सम्बन्धियोंको भेज देना चाहिए। यह आवश्यक है। क्योंकि भारतमें हमारी वास्तविक स्थिति जाहिर करनेका यही सरल और सस्ता उपाय है।

हलफनामा कैसा होता है?

जो बहादुर 'पियानो बजाने' [अँगुलियोंकी छाप देने] के लिए पंजीयन कार्यालयमें प्रिटोरिया जाते हैं उनसे हफलनामे लिये जाते हैं। उन हलफनामोंका सारांश मेरे हाथ

  1. देखिए खण्ड ५, पृष्ठ ४६३-६४ और खण्ड ६, पृष्ठ १२६।
  2. दिसम्बर १८९५ में; देखिए खण्ड २, पृष्ठ ४१८।
  3. १८९९-१९०२ का बोअर-युद्ध, देखिए खण्ड १, पृष्ठ ३७३।