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पत्र: प्रधानमन्त्रीके सचिवको

३. यह ब्रिटिश भारतीयोंका दर्जा दक्षिण आफ्रिकाकी वतनी और रंगदार जातियोंसे भी नीचा कर देता है।
४. यह ट्रान्सवालके भारतीयोंकी स्थिति, जैसी १८८५ के कानून ३ के अन्तर्गत बोअर शासन कालमें थी, उससे भी बुरी कर देता है।
५. यह परवानों तथा जासूसीकी एक ऐसी प्रणाली चलाता है, जिसका अस्तित्व और किसी भी ब्रिटिश इलाकेमें नहीं है।
६. जिन जातियोंपर इसे लागू किया गया है, उनको यह अपराधी अथवा सन्दिग्ध करार दे देता है।
७. भारतीयोंके तथाकथित अनधिकार प्रवाससे इनकार किया जाता है।
८. यदि ऐसे इनकारको स्वीकार नहीं किया जाता तो इस दमनकारी तथा अनावश्यक विधानको अमलमें लानेसे पहले ब्रिटिशों द्वारा इसकी अदालती और खुली जाँच होनी चाहिए।
९. अन्य प्रकारसे भी यह विधान ब्रिटिश परम्पराके विरुद्ध है और निर्दोष ब्रिटिश प्रजाजनोंकी स्वतन्त्रतापर अनावश्यक पाबन्दी लगाता है और ट्रान्सवालके भारतीयोंको अनिवार्य रूपसे देश छोड़कर चले जानेका निमन्त्रण देता है।

इस तरह यह ध्यान देनेकी बात है कि इस कानूनको जब पिछले वर्ष पहले-पहल पेश किया गया था तब उसपर मुख्य आपत्तियोंमें अँगुलियोंके निशानोंका जिक्र तक नहीं था। मेरी नम्र रायमें इस अधिनियममें शुरूसे आखिरतक अपराधीपनकी बू आती है और इसके सामने सिर झुका देनेसे ट्रान्सवालके भारतीयोंका जीवन असहनीय बन जायेगा।

आपका आज्ञाकारी सेवक,
ईसप इस्माइल मियाँ
अध्यक्ष
ब्रिटिश भारतीय संघ

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २८-९-१९०७