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जोहानिसबर्गकी चिट्ठी

सभामें भी वह सब ओर पहुँच जाती है। स्वदेशी आन्दोलनमें[१] उन्होंने बड़ा काम किया है। भारतसे ऐसे तार आने लगे हैं, इसे शुभ चिह्न मानना होगा।

गद्दारोंका संघ

इन भाई साहबोंकी संख्या में कुछ-न-कुछ वृद्धि होती जा रही है। सर्वश्री[२]… पवित्र हो चुके हैं। मुझे लगता है इन लोगोंको जनाना लिबास पहिन लेना चाहिए।

श्री स्टॉकेन्स्ट्रूम

हाइडेलबर्ग में भाषण देते हुए श्री स्टॉकेन्स्ट्रमने कहा है कि भारतीय यदि पंजीयित नहीं होते हैं तो उन्हें परवाने नहीं दिये जायेंगे। कलई खुल चुकी है। पहले जेल थी। जेल मिटकर देश-निकाला हुआ। अब परवानेकी बात चल रही है। भारतीय जब परवानेका डर छोड़ देंगे तब बोथा साहब क्या करेंगे?

श्री नेसर

क्लार्क्सडॉर्प में श्री नेसरने श्री स्टॉकेन्स्ट्रमकी तरह भाषण दिया है। वे अँगुलीकी निशानीकी लड़ाईका खण्डन करते हुए कहते हैं कि भारतीय कौम गैर-कानूनी तौरसे आये लोगोंको बचाने के लिए लड़ रही है। उन्होंने यह भी कहा है कि भारतीय कौम लड़ाई ही करती रहेगी, तो सरकार उनके व्यापारी परवान बन्द कर देगी। धमकी तो सुन ली। लेकिन भौंकनेवाला कुत्ता काटता नहीं। इस कहावतके अनुसार, जैसे-जैसे धमकियां दी जा रही हैं वैसे-वैसे भारतीय समाज निर्भय होता जा रहा है। लेकिन श्री नेसर जैसे व्यक्तिकी नादानी विचार करने योग्य है। अभीतक इसी बातका प्रचार चल रहा है कि हम अँगुलियोंकी निशानीके लिए ही लड़ रहे हैं। इसलिए श्री ईसप मियाँने नीचे लिखे अनुसार जवाब[३] भेजा है।

विलियम वॉन हल्स्टेन

सर विलियम वॉन हलस्टेनने एक भाषणमें कहा था कि भारतीय सिर्फ अँगुलियोंकी निशानीके विरोध में आन्दोलन कर रहे हैं। इसपर ब्रिटिश भारतीय संघके मन्त्रीने इस ओर उनका ध्यान खींचते हुए इस प्रकार लिखा है:[४]

भारतीयोंकी लड़ाई सिर्फ अँगुलियोंकी निशानीके खिलाफ नहीं, बल्कि समूचे कानूनके खिलाफ है। इस कानूनको अनिवार्य रूपमें स्वीकार करने में भारतीय अपनी गुलामी मानता है; और अपनी उस गुलामीसे छूटनेके लिए—न कि सिर्फ अँगुलियोंकी निशानीसे बचनेके लिए—वह अपना सर्वस्व होम देनेको तैयार है। सरकारने धमकियाँ देना शुरू किया है, इस बातको भी हम जानते हैं। ऐसे कानूनको अमलमें लानेसे सरकारका नाम होगा, या दुःख भोगकर भी कानूनका विरोध करके दुनिया में भारतीयोंका नाम होगा यह तो अभी देखना है।

  1. विदेशी मालके (खासतौर से कपड़े के) बहिष्कारका आन्दोलन।
  2. यहाँ मूलमें पांच नाम दिये गये हैं।
  3. देखिए "पत्र: जे॰ ए॰ नेसरको", पृष्ठ २५२।
  4. देखिए "पत्र: डब्ल्यू॰ वी॰ हल्स्टेनको", पृष्ठ २३५-३६।