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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हो तो सरकार अपने आपको मूर्ख साबित करेगी; क्योंकि इस प्रकार इससे एशियाइयोंकी बहुत बड़ी संख्या अछूती रह जायेगी। इसलिए जोहानिसबर्गके एशियाई जो भी कदम उठायेंगे उसीसे इस प्रश्नका बहुत-कुछ निर्णय होगा। अत: जोहानिसबर्गके प्रमुख भारतीयों और दूसरे प्रमुख एशियाइयोंके कंधोंपर जो जिम्मेवारी है, वह बड़ी गम्भीर और महान् है।

इस बातसे इनकार नहीं किया जा सकता कि अबतक भारतीय धरना देनेवालों या सेवाव्रतियोंके प्रयत्नसे ही पंजीयन-दफ्तरका बहिष्कार इतना सफल रहा है। उन्होंने अपना काम शान्ति, दृढ़ता और शिष्टताके साथ किया है। जोहानिसबर्ग में बहुतसे गड़बड़ी पैदा करनेवाले तत्त्व हैं। जिन्होंने सेवा कार्य करनेका बीड़ा उठाया है, उनमें कुछ लोग आगके गोले हैं। फिर, जोहानिसबर्गमें सभी वर्गोंके लोग रहते हैं। इसलिए हम भारतीय स्वयंसेवकोंको आगाह करते हैं कि वे किसी तरह जल्दबाजी या क्रोध न दिखायें। शारीरिक हिंसासे पूरा-पूरा बचा जाये और इसी तरह सख्त भाषा भी इस्तेमाल न की जाये। जो लोग एशियाई अधिनियमके जुएको टालनेके लिए चिन्तित हैं, उन्हें इस बातकी भी फिक्र करनी चाहिए कि वे नासमझी-भरी धौंस और धमकियोंके रूपमें कहीं उससे भारी जुआ न लाद लें। अगर भारतीयों को इस बातका विश्वास है कि यह कानून उनको गिराता है और उनके पौरुषका हरण करता है तो उन्हें सिर्फ यही करना चाहिए कि वे इस दृष्टिकोणको उन दूसरोंके सामने रखें जो इसे नहीं जानते। ऐसा करते ही उनका कर्तव्य समाप्त हो जाता है। फिर वे इसे पंजीयन करवानेवाले भावी आवेदनकर्तापर छोड़ दें कि वह इसमें से क्या चुनाव करता है। अगर वह इस कानूनको गुलाम बनानेवाली शर्तोंको माननेके लिए रजामन्द होता है तो यह उसीकी हानि है, न कि समाजकी।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २८-९-१९०७

२०४. जनरल बोथा और एशियाई कानून

यह देखकर बेचैनी होती है कि ट्रान्सवालके प्रधानमन्त्री, जिन्हें अपनी स्मरणीय लन्दन-यात्रामें सेसिल होटलमें मिलनेवाले भारतीय शिष्टमण्डलसे मीठी और नम्रतापूर्ण बातें कहने में कोई संकोच नहीं हुआ था, अभीतक यह नहीं जानते कि एशियाइयोंके संघर्षका वास्तविक आधार क्या है। उनका खयाल है, और वह ठीक ही है, कि ट्रान्सवालके एशियाइयोंने सिर्फ अँगुलियोंके निशानोंके बारेमें जो भारी आन्दोलन चला रखा है, उसका कोई उचित कारण नहीं हो सकता। किन्तु जनरल बोथाका यह विश्वास, कि आन्दोलनका आधार सिर्फ अंगुलियोंके निशानोंपर होनवाली आपत्ति ही है, बताता है कि वे भारतीयोंकी स्थितिके सम्बन्धमें कितने अज्ञानमें हैं। जब सन् १९०६ में यह कानून पहली बार विचारके लिए पेश किया गया तब इसके विरुद्ध ब्रिटिश भारतीय संघने कुछ आपत्तियाँ[१] लेखबद्धकी थीं। उनमें से कुछ तत्परतासे जनरल बोथाको भेज दी गई हैं। हमारे बहादुर जनरलने यह देखनेका कष्ट भी नहीं उठाया कि यदि ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीयोंकी आपत्तियाँ अँगुलियोंके

  1. देखिए "पत्र: प्रधानमन्त्री सचिवको", पृष्ठ २५०-५१।