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भारतीय फेरीवालोंके खिलाफ लड़ाई

निशान देने तक ही सीमित होतीं तो क्या वे विश्वव्यापी सहानुभूति प्राप्त कर सकते थे। ट्रान्सवालके राजनयिकोंको उन बहुत ही गम्भीर मुद्दोंकी उपेक्षा करनेमें सुविधा हो सकती है, जो भारतीय समाजने अपनी धार्मिक भावनाओं, अपने दर्जे और अपमानजनक वर्गीय विधानके सम्बन्ध में उठाये हैं। किन्तु ऐसी चिर-अभ्यस्त उपेक्षासे अन्तमें एशियाइयोंका गहरा क्षोभ बढ़ेगा एवं उनका विरोध और भी कड़ा होगा। अब उनका साहस निराशासे उत्पन्न साहस है। वे अपने सर्वस्वके अपहरणके अभ्यस्त हो गये हैं। इसलिए, ट्रान्सवालकी सरकारके लिए बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता इसीमें होगी कि वह कमसे-कम भारतीयोंकी आपत्तियोंपर उनके गुण-दोषोंकी दृष्टिसे तो विचार करे और उनकी ओरसे अपनी आँखें बन्द न करे।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २८-९-१९०७

२०५. भारतीय फेरीवालोंके खिलाफ लड़ाई

नेटालकी विधानसभामें फेरीवालोंके परवानोंकी फीस बढ़ाने के प्रस्तावपर जो बहस हुई, वह बड़ी ज्ञानवर्धक है। नेटालके फेरीवालोंपर लगनेवाली इस भारी फीसकी किसीने परवाह नहीं की, क्योंकि फेरी करके रोजी कमानेका काम अधिकांशतः एशियाइयोंके हाथमें है और, जैसा कि न्याय मन्त्रीने कहा, "इस देशमें फेरी लगानेका धंधा श्वेत जातिके लोगोंके योग्य नहीं है।" रंगदार जातियोंके लोगोंसे ताल्लुक रखनेवाले सवालोंपर इसी तरीकेसे बहस करते हुए एशियाइयोंके परम विरोधी श्री हैगरने प्रस्ताव रखा है कि "सार्वजनिक हितमें यह बात अवाञ्छनीय है कि नेटाल गवर्नमेंट रेल प्रणालीमें जिन पदोंपर साधारणतः गोरे लोग काम करते हैं, उनपर एशियाइयोंको नियुक्त किया जाये।" सच पूछा जाये तो इस महान् विधानसभा सदस्यको "सार्वजनिक हित"के बजाय "श्वेत जातिके हित" कहना था। यह भी बता दिया जाये कि यह प्रस्ताव रेलवे और बन्दरगाह मन्त्री द्वारा स्वीकार कर लिया गया और उन्होंने कहा कि अगर मैं "कुलियों" को, जिस नामसे वे रेलगाड़ियोंका मार्ग बदलनेवाले भारतीय कर्मचारियोंको पुकारते हैं, लात मारकर निकाल बाहर नहीं करता तो इसका कारण यह है कि मुझे सदनके सदस्योंसे छँटनीके बारेमें आदेश प्राप्त है। इस प्रकार इन दोनों अवस्थाओं इतना भी नहीं किया गया कि भारतीय फेरीवालों और भारतीय रेलवे कर्मचारियोंके यदि कोई दावे थे तो उनकी जाँच कर ली जाती। जहाँतक उपनिवेशोंका ताल्लुक है, "ब्रिटिश प्रजा होनेका" सिद्धान्त थोथा साबित हो चुका है। उपनिवेशी इस पुराने ब्रिटिश झण्डेके सम्बन्ध में मिलनेवाले सारे लाभ तो उठाना चाहते हैं, लेकिन उस झण्डेको अपनानेसे जो असुविधाएँ और जिम्मेदारियाँ आती हैं उनसे कोई सरोकार नहीं रखना चाहते।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २८-९-१९०७