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२०८. क्या भारत जाग गया?[१]

माननीय प्रोफेसर गोखले तथा माननीय बाबू सुरेन्द्रनाथ बनर्जीके समुद्री तारोंसे हमें जबरदस्त प्रोत्साहन मिला है। ये दोनों महानुभाव केवल सहानुभूतिके तार भेजकर बैठे रहें, सो बात नहीं। इनके तारोंसे मालूम होता है कि भारतसे हमें अब पर्याप्त सहायता मिलेगी। इसका बहुत गहरा अर्थ हो सकता है। ट्रान्सवालका प्रश्न छोटा नहीं रहेगा। उसकी चर्चा सारी दुनियामें होगी। भारतसे अर्जियाँ भेजी जायेंगी, और वहाँ सभाएँ होंगी। मेरी यह मान्यता निराधार नहीं है। यदि ऐसा होता है तो बड़ी सरकार बैठी नहीं रह सकती। लॉर्ड ऐम्टहिल महोदय कह चुके हैं कि ट्रान्सवालके सवालसे भारतको जितनी ठेस लगी है उतनी अन्य किसी बातसे नहीं लगी। हर जगह शोर मचा है। तब भारतको नाराज करनेका इतना जबरदस्त कारण [साम्राज्य] सरकार कैसे रहने दे सकती है?

इतनी सहायता मिलनेका कारण एक ही है। वह है, भारतीयोंकी हिम्मत। आजतक हमने एक होकर जोर दिखाया है। उसका बड़ा प्रभाव पड़ा है। हमें बहुत ही प्रतिष्ठा मिली है। उसकी रक्षा करना अब ट्रान्सवालके भारतीयोंके हाथ है। और ट्रान्सवालके भारतीयोंकी दृष्टि अब जोहानिसबर्गपर है।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, २८-९-१९०७

"बीच रुई जरि जाय"

कहावत है कि "लड़ें लोह-पाहन दोऊ, बीच रुई जरि जाय"। नेटालमें गोरोंके दो पक्ष खींचा-तानी करते हैं, जिसका परिणाम भारतीय मजदूरोंको भोगना पड़ रहा। हैगर साहब और उनके जैसा विचार रखनेवाले गोरोंका कहना है कि रेलवे लाइन पार करनेकी चौकियोंपरसे भारतीय कुलियोंको हटाकर गोरोंको रखना चाहिए। यह नहीं माना जा सकता कि हैगर साहब यह हलचल किसी विशेष परोपकार बुद्धिसे कर रहे हैं। उनका विचार तो जैसे-तैसे आगे बढ़ना है। नेटालकी सरकार जानती है कि भारतीय मजदूरोंको चालू रोजीसे वंचित करके ऊँची तनख्वाहवाले गोरोंको रखना ठीक न होगा। लेकिन, वह अपनी इस प्रामाणिकताको प्रकट करने में झेंपती है, इसलिए कहती है कि जहाँ भी भारतीय मजदूरोंको अलग किया जा सकेगा, वहाँ किया जायेगा। यह मनसूबा यदि कार्यान्वित किया गया तो इसके परिणामकी दोमें से किसी भी पक्षको परवाह नहीं है। इसको वे लोग “सुधार" कहते हैं। यदि सच्ची शिक्षा और सुधार इसीका नाम हो तो हम चाहते हैं कि भारतीय इस बलासे छूट जायें, यही अच्छा है।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, २८-९-१९०७
  1. देखिए "भारतसे सहायता", पृष्ठ २५७।