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पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 7.pdf/२९३

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पत्र: जे॰ ए॰ नेसरको

रखते हुए उसने उसकी वैधताको स्वीकार किया है और इस उद्देश्यकी प्राप्तिके लिए सरकारके साथ सदा ही सहयोगकी तत्परता दिखाई है।

अब एशियाई अधिनियमपर उसके गुणावगुणकी दृष्टिसे विचार करनेके लिए मार्ग साफ है। मैं आपका ध्यान इस तथ्यकी ओर आकर्षित करनेका साहस करता हूँ कि जब सितम्बर १९०६ में अध्यादेशके मसविदेपर—उस समय यह अधिनयम इसी रूपमें था—एतराज किये गये थे, तब उनमें अँगुलियोंके निशानोंका जिक्र तक नहीं था, यद्यपि उस समय यह पता चला था कि सरकार अंगुलियोंके निशानोंपर जोर देना चाहती है। इसलिए यदि अँगुलियोंके निशानोंके बदलेमें हस्ताक्षर रख दिये जाते तो मेरे संघका रुख किसी प्रकार भी नहीं बदलता। सारे अधिनियममें व्याप्त अनिवार्यताका डंक ही भारतीय समाजको चोट पहुँचाता है और उसपर इतना भारी बोझा बना हुआ है। अँगुलियोंके निशानोंसे किसीकी भी धार्मिक भावनाको चोट नहीं पहुँचती, किन्तु अधिनियममें जो तुर्की-ईसाइयों और तुर्की-यहूदियोंके लिए छूट दी गई है वह बेशक धार्मिक भावनाओंको उग्रतम चोट पहुँचानेवाली है।

यह अधिनियम अपनी विभिन्न शर्तोंके भंग होनेपर कठोर दण्डोंसे भरा पड़ा है, किन्तु विरोध सजा या उसकी सख्तीका नहीं किया जाता, बल्कि उसके अन्दर छिपी हुई इस धारणाका किया जाता है कि भारतीयोंका वर्गका-वर्ग अपने गलत नाम बतानेकी जालसाजी करनेमें तथा धोखाधड़ीसे अनुमतिपत्रोंकी अदलाबदली करने और देशके अन्दर अनधिकृत प्रवासियोंको लानेमें समर्थ है। और मैं समझता हूँ, कि यह विरोध ठीक ही है। जब कभी किसी देशमें किसी विशेष अपराधके लिए असाधारण सजाओंका विधान किया जाता है, तब, जैसा कि आप जानते हैं, यह मान लिया जाता है कि उस देशमें इस अपराधका अस्तित्व सर्वसाधारण रूपमें है। इस बातको भली भाँति जानते हुए कि ब्रिटिश-भारतीय, वर्गके रूपमें, ऊपर बताये हुए अपराध नहीं करते, वे उस धारणाके, जिसे यह अधिनियम मौन रूपसे तथा विधि-निर्माता खुलेआम उनका अपराध बतला रहे हैं, परिहारके लिए दिलेरीसे संघर्ष कर रहे हैं। इसके अलावा, यह बात ध्यान में रखनेकी है कि यह कानून एक घृणित ढंगका वर्ग-कानून है। यह भारतीयोंको मलायी लोगोंकी, जिनके साथ उनके नजदीकी रिश्ते हैं, केपके रंगदार लोगोंकी, जिनके निकट सम्पर्कमें वे आते हैं, और काफिर जातियोंकी भी, जिनको वे बहुत बड़ी संख्यामें नौकर रखते हैं, निगाहमें गिराता है। जब कि इन तीनोंको उपनिवेशके अन्य निवासियोंके साथ उनकी व्यक्तिगत आजादीपर ऐसी पाबन्दियोंसे दी गई है, एशियाइयोंको ही विशेष रूपसे पाबन्दियोंके लिए छाँट लिया गया है।

आपके अन्तिम एतराजका स्वभावतः साफ जवाब यह है कि भय एशियाइयोंकी प्रतियोगितासे है, रंगदार जातियोंकी प्रतियोगितासे नहीं। इस तथ्यको जानते हुए ही मेरे संघने यह प्रस्ताव किया था कि अनिवार्य विधानके बदलेमें स्वेच्छया शिनाख्त या पंजीयनका विधान किया जाये। इस प्रकारके स्वेच्छया पंजीयनसे शेष समाजसे अलग कर दिये जानेपर भी भारतीयोंका अपमान नहीं होगा, यूरोपीयोंके एतराजोंका पूरा समाधान हो जायेगा, और निहित अधिकारोंकी रक्षा होगी। आप यह सोचते हुए मालूम होते हैं कि स्वेच्छया पंजीयनसे बेईमान भारतीय साफ बच जायेंगे। उनके अस्तित्वसे में इनकार नहीं करता। किन्तु मेरा निवेदन है कि आपका यह खयाल गलत है। प्रस्तावके अन्तर्गत सरकारसे यह कह दिया गया है कि स्वेच्छया पंजीयनके अनुसार दोनों पक्षोंकी सहमतिसे एक छोटा-सा विधेयक पास करके