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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

वहाँ भी श्रीमती एम० हेब्रिकके मुकदमेका निर्णय करनेके लिए स्वर्गीय न्यायमूर्ति स्टीफेनके समान योग्य न्यायाधीशकी आवश्यकता पड़ी थी। तब दक्षिण आफ्रिका जैसे देशमें, जहाँ अभी विभिन्न राष्ट्रीयताएँ घुलने-मिलनेकी प्रक्रियासे ही गुजर रही हैं और दक्षिण आफ्रिकी राष्ट्रका उदय अब भी धंधले और सुदूर भविष्यके गर्भमें छिपा हुआ है, जूरियोंसे कोई सन्तोष कैसे प्राप्त हो सकता है? जहाँ समानताकी कोई बनियाद नहीं, वहाँ हम समानताके पूजारी नहीं हैं। यह सम्भव है कि ऐसे मुकदमोंमें, जहाँ सवाल गोरों और कालोंका हो, जूरी पद्धतिको समाप्त करनके किसी भी प्रयत्नका झूठी समानताकी दुहाई देकर विरोध किया जायेगा। हमारी धारणा है कि कोई भी वतनी या रंगदार जातिका व्यक्ति, जो इस प्रकारका रुख अख्तियार करता है, सच्ची समानताको नहीं जानता। आज उनके द्वारा, या उनके लिए, तर्कसम्मत ढंगसे जो-कुछ माँगा जा सकता है वह है कानूनकी दृष्टिमें समानताका हक। यूरोपके विभिन्न भागोंसे आनेवाले गोरे कोई साम्राज्य-प्रेम लेकर दक्षिण आफ्रिका नहीं आते। ऐसे गोरोंसे, जहाँतक उनके और उन लोगोंके बीचकी बात है, जिन्हें वे अपनेसे हीन समझते हैं, न तो साम्राज्यीय दायित्वोंके बारेमें सोचनेकी अपेक्षा की जा सकती और न ही न्याय तथा समान अधिकारकी किन्हीं अन्य मान्यताओंके बारेमें। यदि वे, उनके अन्दर मानवताको जो भी भावना हो, उसकी प्रेरणापर कुछ करते हैं तो वह बात अलग है।

इसलिए हमें आशा है कि कोई भी रंगदार व्यक्ति या एशियाई―क्योंकि हमारी बात एशियाइयोंपर भी उसी तरह लागू होती है जिस तरह दूसरी रंगदार जातियों के लोगोंपर―उस आन्दोलनका विरोध करनेकी बात कभी नहीं सोचेगा जिसे नेटालके अखबारोंने सर्वथा स्वार्थ-रहित और न्यायपूर्ण भावनाओंसे प्रेरित होकर, जूरियों द्वारा यूरोपीयों और काली जातियोंके बीच न्याय करनेके तरीकेको खत्म करनेके लिए प्रारम्भ किया है। अगर जूरियों द्वारा फैसले किये जानेका तरीका हमेशाके लिए खत्म हो जाये तो यह सचमुच एक बहुत बड़ी बात होगी, लेकिन यह एक इतना पुराना वहम है कि जन-मतसे इसका सर्वथा परित्याग कर देनेकी आशा करना कठिन है। और न यही सम्भव है कि, जहाँतक सिर्फ गोरोंका सवाल है, इस प्रणालीके विरुद्ध कोई जोरदार तर्क पेश किया जा सके।

हमें विश्वास है कि अगर इस विषयको वहीं छोड़ दिया गया, जहाँ अखबारोंने छोड़ दिया है, तो इसका कोई परिणाम नहीं निकलेगा। दक्षिण आफ्रिकाके गिरजोंको वहाँके मूल निवासियोंके हितोंका―हम उन्हें अधिकार नहीं कहेंगे―संरक्षक माना जाता है सो ठीक ही, और हालाँकि तात्कालिक सवाल नेटालमें उठा है, हमें लगता है कि गिरजोंमें भी इसके साथसाथ आन्दोलन होना चाहिए तथा सम्बन्धित दक्षिण आफ्रिकी सरकारोंके पास अलग-अलग प्रार्थनापत्र भेजना चाहिए कि गोरे और रंगदार लोगोंके बीच जूरियों द्वारा न्यायकी पद्धतिको बन्द कर दिया जाये। हमारा यह भी विचार है कि गिरजों द्वारा किये हुए ऐसे आन्दोलनको दक्षिण आफ्रिकाके वतनी और रंगदार समुदायोंका समर्थन बड़े पैमानेपर मिलना चाहिए।

[अंग्रेजीसे] इंडियन ओपिनयन, १-६-१९०७