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सम्पूर्ण गाँधी वाङ्मय

सम्बन्ध में गोरी महिलाएँ आन्दोलन करें और गोरोंसे ही माल लें। वास्तव में हमें नये कानूनकी अपेक्षा ऐसी हलचलसे डरना चाहिए। यदि गोरे लोग भारतीयोंसे सम्बन्ध तोड़ लें तो बिना कानूनके हमें यहाँसे जाना पड़ेगा। इस परिस्थितिको रोकनेका एक उपाय यही है कि भारतीय समाज परिश्रमी बने और प्रामाणिकता बनाये रखे। साथ ही मेरा तो यह भी खयाल है कि इस समय हम जो हिम्मत दिखा रहे हैं उससे खुश होनेवाली महिलाएँ निःसन्देह व्यापार चालू रखेंगी। किन्तु यदि हमने नामर्दी दिखाई तो वे भी तिरस्कारपूर्वक हमें छोड़ देंगी। मेरी इस बातका यदि फेरीवालोंको अनुभव हुआ हो तो वे समर्थन कर सकेंगे।

कोमाटीपूर्टसे लौटे हुए भारतीय

इन चार भारतीयोंके बारेमें श्री चैमनेको जो पत्र लिखा गया था[१] उसके उत्तरमें वे लिखते हैं:

मुहम्मद इब्राहीम, मूसा कारा, कारा वली और ईसा इस्माइल, इन चारोंने पुर्तगीज देशसे होकर [ट्रान्सवालमें] प्रवेश किया, इसलिए इन्हें रोक दिया गया था। जहाजके टिकट नहीं थे, इसलिए इन्हें डेलागोआ-वे नहीं जाने दिया गया। इनके पास रहने की जगह न होने के कारण जांचके समयके लिए पुलिसने एक कोठरी दी थी जो केवल गुजर-भरके लिए थी। इन लोगोंको ट्रान्सवालमें आनेका हक नहीं है। इसलिए अब इन्हें चले जाना चाहिए, नहीं तो मुकदमा चलाया जायेगा।

इन चार "बहादुरोंने" डर्बनके टिकट ले लिये हैं। इसलिए अब ये चैमने साहबको विशेष तकलीफ नहीं देंगे, न अब विशेष टीकाका कारण ही रहा है।

तुर्कीकी प्रजा

जोहानिसबर्ग में रहनेवाले तुर्कीके कुछ मुसलमानोंने मौलवी साहब अहमदकी मददसे तुर्कीके वाणिज्य दूतको एक अर्जी भेजी है। उसमें बीस व्यक्तियोंके हस्ताक्षर हैं। उसका अनुवाद निम्नानुसार है:[२]

इस अर्जीपर तुर्की के बीस मुसलमानोंने हस्ताक्षर किये हैं।

नेसरका पत्र

श्री ईसप मियांने श्री नेसरको पत्र लिखा था। उसका उत्तर नीचे लिखे अनुसार आया है[३]:

आपने जो रिपोर्ट दी है वह सही है। और उस वक्तके प्रत्येक शब्दपर मैं दृढ़ हूँ। जो एशियाई यहाँ नियमानुसार बसे हुए हैं उनसे मुझे बहुत हमदर्दी है। उनके लिए मैं पहले न्यायालय लड़ चुका हूँ और भविष्यमें प्रत्येक योग्य प्रसंगपर लड़नेको तैयार हूँ। लेकिन एशियाइयोंके प्रवेशको मैं और अधिक जारी रखनेमें असमर्थ हूँ। इस प्रवेशको रोकने में हर तरहकी मदद देनेका मैंने निश्चय किया है। आत्मरक्षाके

  1. देखिए "पत्र: एशियाई पंजीयकको", पृष्ठ २२७।
  2. पाठके लिए देखिए "प्रार्थनापत्रः तुर्कीके महा वाणिज्य दूतको", पृष्ठ २६६।
  3. मूल पत्र ५-१०-१९०७ के इंडियन ओपिनियन के अंग्रेजी विभागमें प्रकाशित किया गया था।