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जोहानिसबर्गकी चिट्ठी

लिए उतना जरूरी है। अँगुलियोंकी निशानीके सम्बन्धमें क्या आपत्ति हो सकती है, यह समझमें नहीं आता। उसमें मुझे कोई आपत्ति नहीं मालूम होती। अँगुलियोंकी निशानीसे किसीकी धार्मिक भावनाको किस तरह चोट पहुँच सकती है? आप स्वेच्छया पंजीयनके बारेमें बहुत कह रहे हैं। लेकिन उसमें और अनिवार्य पंजीयनमें क्या अन्तर है, कृपया लिखें। स्वेच्छया पंजीयनमें बेकार समय जायेगा। भले लोग तो पंजीयन करवा लेंगे, लेकिन बदमाश तब भी बच जायेंगे। जैसे मैं यह नहीं कह सकता कि गोरे या उनके समाजका हरएक व्यक्ति ईमानदार है, वैसे ही आप भी यह नहीं कह सकते कि आपके भी सभी लोग ईमानदार हैं।

ईसप मियाँका उत्तर

इसपर श्री ईसप मियाँने निम्नलिखित उत्तर दिया है[१]:

आपके विवेकपूर्ण और खुले दिलसे लिखे गये पत्रके लिए हमारा संघ कृतज्ञ है। भारतीय प्रश्नका निराकरण करने में मुख्य कठिनाई यह है कि गोरे नेता भारतीय प्रश्नकी वास्तविकतासे परिचित नहीं हैं।

इस उपनिवेशमें रहनेवाले भारतीयोंके प्रति आपकी सहानुभूतिके लिए मैं कृतज्ञ हूँ। उन लोगोंके लिए ही यह लड़ाई है, इसलिए आपकी और हमारी लड़ाई मिलती-जुलती है।

भारतीय बड़ी संख्या में प्रवेश करें, इसपर आपने आपत्ति प्रकट की है, जिससे संघको सहानुभूति है। गोरे आव्रजनके विरुद्ध हैं, इसलिए इस आपत्तिके सम्बन्ध में हमें कुछ कहना नहीं है। और इस विषयमें संघ हमेशा सरकारको मदद देनेको तैयार है।

अब हम एशियाई कानूनके गुण-दोषोंका विवेचन करें। सितम्बर १९०६ को जब एशियाई कानून बनाया गया था तब अँगुलियोंकी निशानीकी बात नहीं थी। अँगुलियोंकी निशानीकी जगह यदि हस्ताक्षरकी बात की जाती तो भी संघ कानूनका विरोध करता। हमें जो चीज चुभती है, और जिससे वेदना होती है वह यह है कि कानून हमें पंजीकृत होनेके लिए मजबूर करता है। अँगुलियोंकी निशानी देनेसे हमारी धार्मिक भावनापर चोट नहीं पहुँचती। किन्तु यह कानून तुर्कीके यहूदियों और ईसाइयोंपर लागू नहीं होता, इस धार्मिक भेदभावसे हमारी भावनाको चोट जरूर लगती है।

कानून में विधिवत् शर्तें बनाई गई हैं। उनके भंग होनेपर हर बातके लिए सख्त सजा रखी गई है। ऐसी सजाओंसे कानून भरा हुआ है। लेकिन हम जो विरोध करते हैं, वह इसलिए कि आप भारतीय प्रजाके साथ ऐसा व्यवहार करते हैं, मानो वह बदमाश समाज हो, ठग हो, उसने अनुमतिपत्रोंकी अदला-बदलीका धंधा ही उठा रखा हो और गैरकानूनी तरीकेसे लोगोंका प्रवेश कराता हो। भारतीय समाजका विरोध इससे है, और वह बिलकुल वास्तविक है। सामान्यतः, सख्त सजाएँ रखनेका अर्थ ही यह होता है कि ऐसे अधम अपराध होते हैं। भारतीय समाज ऐसे अपराध करनेका धंधा नहीं करता, और इसलिए बदमाशोंमें शरीक किये जानेपर वह उसके विरुद्ध लड़ता है। दूसरी बात यह भी याद रखनी चाहिए कि यह अधम कानून सिर्फ

  1. मूल अंग्रेजी पत्रके हिन्दी अनुवादके लिए देखिए "पत्र: जे॰ ए॰ नेसरको", पृष्ठ २६२-६४।