पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 7.pdf/३०७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२७७
केपके भारतीय

यात्रा करनेमें भी अनेक सम्मानित भारतीयों को जो कुछ सहन करना पड़ता है, यह उसका एक नमूना है। यहाँ साधारण कानून बनानेका प्रश्न नहीं है, एशियाइयोंका बड़ी संख्यामें आनेका भी प्रश्न नहीं है, बल्कि मनुष्य और मनुष्यके बीचमें साधारण शिष्टता तथा न्यायका प्रश्न है। अथवा, 'ग्लासगो हेरल्ड' में उस दिन लिखनेवाली श्रीमती वॉगलके शब्दोंमें, क्या रंगदार चमड़ी होना ट्रान्सवालमें श्वेत लोगोंके विरुद्ध जुर्म है?

आपका, आदि,
मो॰ क॰ गांधी

[अंग्रेजीसे]
रैंड डेली मेल, १०-१०-१९०७

२२३. केपके भारतीय

केपके सर्वोच्च न्यायालय में प्रवासी कानूनसे उत्पन्न एक महत्त्वपूर्ण परीक्षणात्मक मुकदमेकी सुनवाई हुई थी, जिसका विवरण[१] 'केप टाइम्स' ने प्रकाशित किया था। कुछ विलम्ब हो जानेपर भी हम उसे इस अंकमें अन्यत्र उद्धृत कर रहे हैं। केपकी संसदमें जब प्रवासी अधिनियम पास किया जा रहा था उस समय वहाँके प्रमुख भारतीयोंने जो सुस्ती दिखाई उसपर हम पहले भी खेद प्रकट कर चुके हैं। हमें विश्वास है कि फरियाद की जाती तो इस प्रकारके कानूनमें निश्चय ही काफी संशोधन कर दिया जाता। यद्यपि मुकदमेके तथ्योंको उक्त विवरणमें पूरी तरहसे दिया गया है, तथापि हम दुबारा उनको यहाँ दे रहे हैं। केपमें बसा हुआ एक भारतीय, जिसकी वहाँ कुछ जमीन-जायदाद थी, और जो १८९७ से वहाँ सामान्य विक्रेताका रोजगार करता था, भारत जाना चाहता था, और भारतसे लौटते समय होनेवाली असुविधासे बचनेके इरादेसे एक निश्चित अवधि तक उस उपनिवेशसे अनुपस्थित रहनेका अनुमतिपत्र चाहता था। प्रवासी अधिकारीने ऐसा अनुमतिपत्र देनेसे इनकार कर दिया और ऐसा अनुमतिपत्र देना चाहा जिसकी अवधिका निश्चय वह स्वयं करता। यहाँ प्रश्न यह नहीं है कि प्रवासी-अधिकारीका निर्णय उचित था या नहीं; क्योंकि एक ओरसे अधिकार पानेका तथा दूसरी ओरसे उसे न देनेका प्रयत्न किया जा रहा था। प्रवासी अधिकारीका कहना था कि एक एशियाईको उपनिवेशसे अनुपस्थित रहनेका अनुमतिपत्र देना एक रियायत है। किन्तु एशियाईका कहना था कि यह उसका अधिकार है। अब सर्वोच्च न्यायालयने यह निर्णय दिया है कि कानूनके अनुसार एशियाइयोंको अनुपस्थितिका अनुमतिपत्र पानेका निहित अधिकार नहीं है। सारांश यह कि यह मामला निरा स्वाँग है; क्योंकि इससे एशियाइयोंको दासताकी अवस्था में पहुँचा दिया गया है, जिसके लिए वहाँके प्रमुख भारतीयोंके अलावा और किसीको दोष नहीं दिया जा सकता। इसके अलावा, दलीलोंमें उठाया गया सबसे दिलचस्प मुद्दा अनिश्चित ही छोड़ दिया गया है। प्रवासी अधिनियमकी पहली धारा १९०२ के प्रवासी अधिनियमके द्वारा दिये गये अधिकारोंकी रक्षा करती हुई

  1. विवरण यहाँ नहीं दिया जा रहा है।