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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मालूम होती है, जिसे उक्त अधिनियमन मंसूख कर दिया है। इसमें कहा गया है कि:

इस मंसूखीका इस अधिनियमके लागू होने के समय पूरे किये गये अथवा शुरू किये गये कामों, किन्हीं अधिकारों, सुविधाओं या प्राप्त संरक्षणों, किन्हीं सजाओं या देनदारियोंकी जिम्मेदारी, किन्हीं वर्तमान निर्योग्यताओं, किसी किये हुए अपराध अथवा की हुई कार्यवाहीपर कोई प्रभाव न पड़ेगा।

इधर, १९०२ का अधिनियम ४७ दक्षिण आफ्रिका आकर बसनेवाले दूसरे लोगोंके साथ एशियाइयोंके अधिकारोंकी भी रक्षा करता था। इससे ऐसा लगता है कि १९०२ से पहले केपमें, या दक्षिण आफ्रिकामें भी, बस जानेवाले भारतीयोंके अधिकारोंपर १९०६ के अधिनियमका कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता। न्यायमूर्ति मैसडॉर्पने साफ कहा कि उस भारतीयके सम्बन्धमें ही यह मुद्दा उठाया जा सकता है और उसका फैसला किया जा सकता है जो १९०२ से पूर्व केपका निवासी रहा हो और अनुपस्थितिका अनुमतिपत्र लिये बिना केपसे बाहर जाकर फिर वहाँ वापस आये। यह बहुत ही सहज है और हमारा विश्वास है कि केपमें रहनेवाले भारतीय अपने इस अधिकारकी परीक्षा करा लेने में समय न खोयेंगे। अनुपस्थितिका अनुमतिपत्र जारी करनेकी प्रथा अत्यधिक दमनकारी है; और वह निःसन्देह उस स्वतन्त्रतामें हस्तक्षेप करती है, जिसका हर आजाद आदमीको अधिकार है।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, १२-१०-१९०७

२२४. 'इंडियन ओपिनियन' के बारेमें

हमारे पाठकोंने देखा होगा कि हम गुजरातीमें पहले चार पृष्ठ देते थे, फिर आठ हुए, उसके बाद बारहपर पहुॅचे, और कुछ सप्ताहसे तेरह, चौदह और पन्द्रह पृष्ठ चल रहे हैं। अब हमने हमेशा सोलह पृष्ठ देनेका इरादा किया है। सम्भव है, कभी किसी असुविधाके कारण इतने न दिये जा सकें। इस तरह कलेवर बढ़ानेसे खर्च बढ़ता जाता है। फिर भी हम विचार बदलनेवाले नहीं है, क्योंकि हमारा हेतु सेवा करके अपनी रोटी कमाना है। मुख्य उद्देश्य है सेवा करना। कमाई उसके बाद है। 'इंडियन ओपिनियन' जबसे शुरू हुआ है[१] तबसे आजतक इससे मालदार बननेका लक्ष्य न तो किसीका रहा, और न आगे रहेगा। इसलिए आमदनी जितनी ज्यादा हो उतना ही पाठकोंको फायदा पहुँचे, इसकी हम व्यवस्था करना चाहते हैं। इस पत्र काम करनेवालोंकी आमदनी एक सीमा तक पहुँचने के बाद जो कुछ भी रकम बच रहेगी, और ऐसी बचतका समय आयेगा तो, वह सब रकम सार्वजनिक कार्य में खर्च की जायेगी।

हमारी निश्चित मान्यता है कि 'इंडियन ओपिनियन' की बिक्रीमें जितनी वृद्धि होगी, उतनी ही हमारी शिक्षा और स्वाभिमानमें वृद्धि होगी। फिलहाल 'इंडियन ओपिनियन' के ग्राहक सिर्फ ग्यारह सौ हैं, यद्यपि उसके पाठकोंकी संख्या बहुत ज्यादा है। यदि सभी पाठक

  1. जून, १९०३ देखिए खण्ड ३, पृष्ठ ३३६-३७।