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दक्षिण आफ्रिका ब्रिटिश भारतीय समिति

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[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, १२-१०-१९०७

२२५. दक्षिण आफ्रिका ब्रिटिश भारतीय समिति

इस समितिको अब एक वर्ष पूरा हो रहा है।[१] इसे दूसरे वर्ष चालू रखा जाये या नहीं, यह दक्षिण आफ्रिकाके भारतीयोंपर निर्भर है। श्री रिचने यह सवाल उठाया है। उनके पत्रकी ओर हम प्रत्येक भारतीयका ध्यान खींचते हैं।

समितिने काम बहुत किया है और उसका परिणाम बहुत ही अच्छा हुआ है, इस बातको प्रत्येक भारतीय समझ सकता है। अभी हमारी नाव बीच समुद्रमें है। इस बीच समितिको तोड़ना हम नावको डुबानेके समान मानते हैं।

समितिके कामसे केवल ट्रान्सवालको ही नहीं, समूचे दक्षिण आफ्रिकाको लाभ है। फ्रीडडॉपके कानूनका लाभ केवल जोहानिसबर्ग ही भोगेगा सो बात नहीं। उस कानूनमें जो परिवर्तन हुआ और जन-मतपर जो असर पड़ा है उसका लाभ सबके लिए समझना चाहिए। नये कानूनकी लड़ाईकी सफलता में समस्त भारतीयोंका लाभ समाया हुआ है। समितिने बस इतना ही नहीं किया है। नेटालका नगरपालिका-कानून रद-सा है। उसका श्रेय समिति ही ले सकती है। परवाने के सम्बन्ध समिति अभी लड़ रही है। डेलागोआ-बेके बारेमें, हमारा विचार है, समितिकी लिखा-पढ़ीका असर हुआ है। और यदि केपके भारतीयोंकी नींद खुल जाये तो उनके कानूनके लिए भी समिति लड़ सकती है।

समितिमें कई प्रसिद्ध लोग हैं। लेकिन यदि उसका काम करनेवाले श्री रिच न हों तो वह चल ही नहीं सकती। सर मंचरजी भावनगरी बहुत परिश्रम करते हैं। परन्तु यह काम उनके बहुत से कामोंमें एक है। श्री रिचका तो सारा समय समितिके काममें ही जाता है। इस लिए उनके बिना समितिको चलाना मुश्किल होगा। उनका दक्षिण आफ्रिका लौट आनेका समय आ गया है, फिर भी जान पड़ता है कि वे वहाँ रुकनेमें खुश हैं।

अब खर्चके सम्बन्धमें विचार करें। समितिकी स्थापनाके समय हमने कमसे-कम ३०० पौंड खर्चका अनुमान लगाया था। लेकिन काम इतना बढ़ गया कि समितिको जो ५०० पौंड भेजे गये वे भी कम पड़े। इतने खर्चमें भी काम इसलिए चल गया कि श्री रिचने नाममात्रको वेतन लिया है। वे तो वह भी न लेते, लेकिन उनके लिए और कोई चारा नहीं था। अब हमें उनका पूरा खर्च उठाना चाहिए। यानी उनके हिसाबसे एक वर्षका खर्च १,००० पौंड होगा। यदि समिति पूरी ताकतसे एक वर्ष काम करे तो ५०० पौंड उसके लिए मानना चाहिए

  1. यह नवम्बर, १९०६ में स्थापित की गई थी; देखिए खण्ड ६, १४ २४३-४४।