परन्तु हमारे लिए श्री स्मट्सकी इस सरासर झूठकी अपेक्षा उनके विचार अधिक समझ लेने योग्य हैं। श्री स्मट्सके कथनसे हम समझ सकते हैं कि यह सारा आक्रमण व्यापारियोंपर है। भारतीय व्यापारी उनकी आँखोंमें खटकते हैं। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि वे व्यापारियोंको बस्तीमें ही भेजेंगे। चाहे जितनी मुसीबतें भोगनी पड़ें, वे ट्रान्सवाल केवल गोरोंके लिए ही रखना चाहते हैं। इस समयकी व्यापारिक मन्दीका दोष भारतीय व्यापारियोंपर थोप रहे हैं, और जबतक भारतीय व्यापारियोंकी जड़ें नहीं उखाड़ देंगे तबतक वे चैन नहीं लेंगे। वे समझते हैं कि यदि हम लोग इस कानूनको मान लें तो फिर उन्हें जो कुछ करना हो वह कर सकेंगे। जबरदस्त टक्कर लेकर और शपथें खाकर यदि हम सो जायें तो फिर लात मारना आसान है। इससे खासकर व्यापारियोंको समझ लेना चाहिए कि यदि व्यापारी पंजीयन करवायेंगे तो उनका दोहरा नुकसान होगा। उनकी प्रतिष्ठा जायेगी, उन्हें भारतीय धिक्कारेंगे और हाथ-मुँह घिसनेके बाद भी उन्हें बस्ती में जाकर बरबाद होना पड़ेगा। यदि वे दृढ़ रहकर लड़ेंगे तो उनकी प्रतिष्ठा बनी रहेगी; और प्रतिष्ठा ही सच्चा धन है। इतना ही नहीं, दृढ़ रहनेसे लड़ाई जीतनेकी पूरी सम्भावना है। अर्थात् उनका व्यापार बच जायेगा। बचनेका एक ही रास्ता है और वह है कानून के खिलाफ जूझना। अन्यथा हम आजसे ही मरे हुए हैं।
फिर, श्री स्मट्सके शब्दोंको हम धमकी के रूप में ही लेते हैं। जो करता है वह बकता नहीं। काटनेवाला कुत्ता भौंकता नहीं। फन उठानेवाला साँप डसता नहीं, केवल फुफकारता है। श्री स्मट्स एक ओर तो कहते हैं कि दिसम्बर महीने में प्रत्येक भारतीयको निर्वासित करेंगे; दूसरी ओर कहते हैं कि जनवरीमें परवाने छीनकर दूकानें बन्द कर देंगे। इसमें सच क्या है? यदि दिसम्बर में सबको निकाल बाहर करेंगे तो फिर दुकानें किसकी बन्द करेंगे? ऐसे शब्द तो क्रोधका मारा पागल मनुष्य ही बोलेगा। फिर, निर्वासित करनेको सत्ता तो उनके हाथ में आई नहीं है, पहले ही निर्वासित करनेकी धौंस दे रहे हैं। इसे हम बच्चोंका खेल समझते हैं। आखिर निर्वासित करें और जेलमें बन्द कर दें, इसका डर उसे क्यों लगेगा जिसने अपनी प्रतिष्ठाको श्रेयस्कर माना है? और अन्त में भारतीय समाजको खुदापर भरोसा है, इसलिए वह हजार स्मट्सोंसे भी नहीं डरेगा।
श्री स्मट्स एक ही बातकी रट लगाये जा रहे हैं, किन्तु दूसरी ओर, हम देख रहे हैं कि, इंग्लैंड में हमारा समर्थन बढ़ता जा रहा है। मंगलवारके तारोंसे ज्ञात होता है कि काले मनुष्योंकी संरक्षक समिति और नैतिक समिति-संघन मिलकर प्रस्ताव किया है कि एशियाई कानून बुरा है और इस सम्बन्ध में भारतीय सरकार, उपनिवेश मन्त्रालय तथा ट्रान्सवालकी सरकारको नरमीसे काम लेना है। ये सब समितियाँ और सारे संसारके समाचारपत्र हमारे पक्ष में हैं। इसके सामने श्री स्मट्स चाहे जितना जोर करें और चाहे जितना घमण्ड करें, उनसे क्या होना है? जिसका खुदा रक्षक है उसका भक्षण किस इन्सानके बूतेका है।
इंडियन ओपिनियन, १२-१०-१९०७