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केपके भारतीय

सर्वोच्च न्यायालयने श्री धारशीकी अर्जी नामंजूर कर दी और निर्णय दिया कि भारतीय लोग अनुमतिपत्र देनेके लिए अधिकारीको बाध्य नहीं कर सकते।

इस फैसलेका अर्थ यह हुआ कि केप छोड़कर यदि कोई भारतीय बिना स्वीकृतिके जाता है तो लौटकर नहीं आ सकता। अनुमतिपत्र देनेकी सत्ता अधिकारीके हाथमें रहनेके कारण भारतीय सदाके लिए केपमें पराधीन हो गये। इस समय अनुमतिपत्र सभीको दिया जाता है, इसमें कोई विशेष बात नहीं है। परन्तु अनुमतिपत्र लेना पड़ता है, यही जुल्मकी बात है। ऐसा कानून कहीं नहीं है। नेटालमें एक बार प्रमाणपत्र मिलता है, वह हमेशा के लिए पर्याप्त होता है। ट्रान्सवालमें भी जो प्रमाणपत्र देना चाहते हैं वह एक बारका है। केपसे जब कोई भारतीय जाना चाहे तब उसे अनुमतिपत्र लेना चाहिए। यदि वह न ले और उसे अंग्रेजी न आती हो तो वह वापस नहीं आ सकता। इस कानूनको हम अत्यन्त अत्याचारपूर्ण मानते हैं। इसके अलावा, इस अनुमतिपत्रके लिए एक पौंड शुल्क और लगता है। इसमें और गुलामीमें अधिक अन्तर नहीं है। केपसे अनुमति के बिना क्यों नहीं जाया जा सकता?

अब भी उपाय है। एक तो यह कि केपके नेता जबरदस्त आन्दोलन करके कानूनमें परिवर्तन करायें। दूसरा यह कि केपके चुनावोंके समय वे अपनी ताकत बतायें। इस कानूनमें और एक डंक है, यह भी स्मरण रखनेकी बात है। प्रत्येक भारतीयके लिए अपना फोटो देना अनिवार्य है। कुछ लोगोंसे फोटो नहीं लिये जाते। इससे उन्हें फूलना नहीं है। वसीलेवाले व्यक्ति यदि छूट जाते हैं तो उससे भारतीय समाजको क्या लाभ? उससे हमारी प्रतिष्ठाकी रक्षा नहीं होती।

जो तीसरा मार्ग है उसपर भी विचार कर लें। उपर्युक्त मुकदमेकी दलीलके समय एक प्रश्न यह उठा था कि १९०२ से पहले केपमें बसे हुए भारतीयोंपर १९०६ का कानून लागू नहीं होना चाहिए। यह प्रश्न मुकदमेमें नहीं उठा था, इसलिए न्यायालयने इसके सम्बन्धमें निर्णय नहीं दिया और कह दिया कि जब ऐसा मुकदमा आयेगा तब न्यायालय देख लेगा। १९०२ के कानूनके अनुसार दक्षिण आफ्रिकामें बसनेवाले प्रत्येक भारतीयको केपमें न जानेका अधिकार था। इससे यह समझा जाता है कि १९०२ के पहलेसे बसे हुए भारतीयपर १९०६ का कानून लागू नहीं होना चाहिए। यदि यह दलील ठीक है तो ऐसे भारतीयके लिए अनुमतिपत्रकी आवश्यकता नहीं रहती। इस प्रकारका मुकदमा न्यायालयमें लानेके लिए १९०२ के पूर्वसे बसनेवाले भारतीयको केपसे बाहर जाकर वापस आनेका प्रयत्न करना चाहिए। यदि प्रवासी-अधिकारी उसपर रोक लगाये, तो उपर्युक्त प्रश्न सर्वोच्च न्यायालयमें उठाया जा सकता है। यह प्रश्न उठाने योग्य है, इसमें कोई सन्देह नहीं। इस प्रकार केपके भारतीय तीन मार्ग अपना सकते हैं और हमें आशा है कि वे तीनों मार्ग अपनायेंगे।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, १२-१०-१९०७