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२२९. जोहानिसबर्गकी चिट्ठी
स्मट्सने टुच्चे पत्रका उत्तर दिया

मैं कह चुका हूँ कि श्री स्मट्सने उस पत्रका उत्तर दे दिया है, जो श्री रूजने कुछ भारतीय नेताओंकी ओरसे लिखा था। अब उस उत्तरका अनुवाद दे रहा हूँ:[१]

नये कानूनके अन्तर्गत बनाये गये नियमोंके सम्बन्ध में आपका ३० अगस्तका पत्र मुझे मिला। ट्रान्सवालमें रहनेवाले एशियाई लोग कानूनके सामने झुक जायेंगे तो उन भारतीयोंके अनुमतिपत्र जाँचनेके लिए, जिनपर कोई सन्देह नहीं है तथा जिन्होंने कोई अपराध नहीं किया, खास तौरसे चुने हुए कुछ गोरे अधिकारी नियुक्त किये जायेंगे।

परवाना देनेवाले कारकुनको इसकी जाँच करनेका अधिकार नहीं दिया जा सकता कि अर्जदारोंके अनुमतिपत्र सच्चे हैं या झूठे। परवाना अधिकारीके समक्ष पंजीयन-पत्र पेश करना होगा और केवल दाहिने हाथके अंगूठेकी निशानी देनी होगी। वह निशानी पंजीयकके पास भेजी जायेगी। यदि वह पहलेकी निशानीसे मिल गई, तो फिर विशेष जाँच नहीं की जायेगी।

गुमाश्तोंको मियादी अनुमतिपत्रोंके द्वारा बुलानेके बारेमें अपने विचार पहले व्यक्त कर चुका हूँ। उनमें परिवर्तन नहीं किया जा सकता।

माता-पिताओंसे उनके बच्चे अलग कर देनेका इरादा नहीं है। और सोलह वर्षसे कम उम्र के बालकोंको बाहर भेजनेका हुक्म नहीं दिया जा सकता। लेकिन पिता या अभिभावकको कानूनके अनुसार बालकका हुलिया, अँगुलियोंकी निशानी आदिका नियम पालना होगा।

चीनी राजदूत आदिके अँगुलियोंके निशान नहीं लेनेका नियम है। उनके सिवा इस नियमसे किसीको मुक्त नहीं किया जा सकता।

जैसी बोनी वैसी कटनी

इस कहावतके अनुसार जिन साहबोंने श्री स्मट्सको पत्र लिखवाया था उन्हें उपयुक्त ही उत्तर मिला है। यह उत्तर बताता है कि श्री स्मट्सने एक भी बात नहीं मानी; गोरे अनुमतिपत्र निरीक्षक भी तभी मिलेंगे जब सभी भारतीय पंजीकृत होना स्वीकार करेंगे, कुछ खास लोगोंके पंजीकृत हो जाने से काम नहीं चलेगा। यदि मैं अपने हाथ काले करता हूँ तो मुझे तो कहना चाहिए कि मेरा पंजीयनपत्र काला देखे या गोरा, उसमें कुछ भी फर्क नहीं पड़ता। काला आदमी देखे तो शायद कुछ विवेक भी बरत सकता है, लेकिन किसी गोरे अधिकारीने गुलामोंके प्रति विवेक बरता हो और उसका कोई उदाहरण हो तो कृपया पाठक मेरे पास भेजें, जिससे इस पत्रमें उन गोरे साहबका नाम जितना भी अमर किया जा सकेगा, करूँगा।

  1. मूल अंग्रेजी जवाब ५-१०-१९०७ के इंडियन ओपिनियन में प्रकाशित हुआ था।