शेष मांगोंके लिए श्री स्मट्स साहबने साफ इनकार कर दिया है, और वह भी गुलामी लेनेवालेको फबे वैसी भाषामें। कुछ माँगें बेकार हैं, यह भी उन्होंने कह दिया है। जैसे, बालकोंके सम्बन्धमें। स्मट्स साहब चाहें तो भी नये कानूनमें परिवर्तन किये बिना १६ वर्ष से कम उम्र वाले बालकपर हाथ नहीं उठा सकते। बालक यदि अँगुलियोंकी भी निशानी न दे तो उसे सजा नहीं दी जा सकती। लेकिन जो पिता अपने लड़केको गुलामीका ककहरा बचपन में न सिखाये उसके लिए सजा है। गुलामोंके बालक स्वतन्त्र मिजाजके हों, यह सरकारको कैसे बरदाश्त हो सकता है? अंग्रेजोंके बालक आठ वर्ष की उम्रसे कवायद सीखते और बन्दूकें उठाते हैं। लेकिन हम तो गुलाम ठहरे। इसलिए हमारे बालकोंको गुलामीको तालीम ही दी जा सकती है। जैसा बाप वैसा बेटा, यह तो चला ही आ रहा है, और चलेगा भी। अब इस जवाबके बारेमें और अधिक क्या कहूँ? सिर्फ इतना ही कहना काफी है कि इस काले पत्रसे कहीं प्रिटोरियाके भाइयोंमें जान आ जाये तो वे अब भी अपने धनका मोह छोड़कर कुछ जोशके साथ श्री स्मट्सको अनुरूप उत्तर देंगे तथा अपनी गलती सुधार कर, भारतीय प्रजा जो आन्दोलन कर रही है, उसमें पूरी ताकतसे शामिल होंगे। वास्तव में श्री स्मट्सका पत्र प्रत्येक भारतीयमें जोश भरनेवाला है। उसे पढ़ने के बाद प्रत्येक भारतीयको लगना चाहिए कि "यदि श्री स्मट्सको अपने पत्र में लिखी शर्तोपर ही ट्रान्सवालमें रहने देना हो, तो मुझे ट्रान्सवाल नहीं चाहिए। अन्न-जल देनेवाला खुदा महान है। वह सूखा टुकड़ा कहीं भी देगा।" यह जोश आ जाये तो कैसा रंग जमता है, यह देखनेवाले देखेंगे। नर-रत्न थोरोके समान उनके लिए जेल महल ही बन जायेगी और जेलमें पड़े हुए भारतीयों की पुकार श्री स्मट्सको दहला देगी।
हाजी कासिमका स्पष्टीकरण
श्री रूज़के पत्रका उत्तरदायित्व श्री हाजो कासिमके ऊपर डाला गया है। इसलिए उन्होंने उसे अपने साथ अन्याय माना है और निम्नलिखित स्पष्टीकरण दिया है, जिसे मैं समाजके समक्ष रख रहा हूँ। श्री हाजी कासिम लिखते हैं:
जो अर्जी उपनिवेश सचिवको दी गई वह कुछ लोगोंने मिलकर दी थी। अर्जीकी भाषा नम्र रखनेका कारण यह नहीं था कि मैंने वैसा करने को कहा था, बल्कि वकीलकी वैसी सलाह थी और हमें भी सरकारसे नम्रतापूर्ण अर्जी करना ठीक मालूम हुआ था। इसके अलावा नम्रतापूर्ण अर्जी करनेसे सरकार हमारी माँगकी पूर्ति करेगी, यह सोचकर ही हम सब भाई उसमें शामिल हुए थे, और सबने अपनी सम्मति दी थी। वह अर्जी खासकर मैंने ही भिजवाई हो, सो बात नहीं। 'इंडियन ओपिनियन' में मुझपर व्यर्थ ही दोष मढ़ा जाता है। वह सरासर गलत है। पंजीकृत होना या न होना, यह सबकी अपनी इच्छापर निर्भर है। किसीने आपको गलत लिखा होगा। उसके आधारपर अखबारमें गलत तरीकेसे मेरा नाम प्रकाशित करना ठीक नहीं। मैंने स्वयं पहले ही ब्रिटिश भारतीय संघके नेताओंसे जाहिरा कहा है कि जहाँतक खुदा हिम्मत देगा वहाँ तक सब भाइयोंके साथ चलता रहूँगा और यदि हिम्मत टूट गई, तो भी भाइयोंकी सलाह और मददसे ही जो कुछ करना उचित होगा, करूँगा।
यदि मुझपर यह आरोप लगाया जाता कि अर्जी देनेमें जो लोग शामिल थे मैंने उनका साथ दिया तो वह बिलकुल अलग बात है। वास्तव में नरम प्रकृतिका आदमी हूँ, और मानता हूँ कि सरकारसे समझौता करके चलनेवाला पक्ष अक्लमन्द है। यह