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द॰ आ॰ ब्रि॰ भा॰ समितिको पत्र

मुकदमा श्री क्रॉसके सामने चला। श्री गांधीने निःशुल्क पैरवी की और मजिस्ट्रेटने उसे निर्दोष ठहराकर छोड़ दिया। तैयारी इतनी थी कि यदि उसपर जुर्माना किया जाता तो वह जुर्माना न देकर जेल जाता। इससे कोई यह न समझ ले कि चाहे जिस पैदल पटरीपर खड़ा रहा जा सकता है। श्री भाणाके छूटनेका कारण यह था कि उनके खड़े रहने से दूसरे राहगीरोंको रुकावट नहीं होती थी। सरल तरीका यह है कि यदि पुलिस किसी जगह खड़े रहनेको मना करे तो दूसरी जगह जाकर खड़े हो जायें।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, १२-१०-१९०७

२३०. द॰ आ॰ ब्रि॰ भा॰ समितिको पत्र[१]

[जोहानिसबर्ग
अक्तूबर १४, १९०७के पूर्व]

आप जाब्तेसे सूचित कर सकते हैं कि सर हेनरी कैम्बेल बैनरमैनके नाम जो पत्र भेजा गया है वह यहाँ के भारतीय समाजके विचारोंको ठीक व्यक्त करता है और यदि जो अनुमति मांगी जा रही है वह प्रदान की गई तो भारतीय निश्चय ही महसूस करेंगे कि वे साम्राज्यके अंग समझे जा रहे हैं। आज तो वे निःसन्देह अनुभव करते हैं कि वे सौतेली सन्तान हैं।

[मो॰ क॰ गांधी]

[श्री एल॰ डब्ल्यू॰ रिच

२८, क्वीन ऐन्स चेम्बर्स
ब्राडवे, वेस्ट मिन्स्टर
लन्दन, एस॰ डब्ल्यू॰]
[अंग्रेजीसे]

कलोनियल ऑफिस रेकर्ड्स: सी॰ ओ॰ २९१/१२२
  1. एशियाई पंजीयन अधिनियमके सम्बन्धमें दक्षिण आफ्रिका ब्रिटिश भारतीय समितिके मन्त्री एल॰ डब्ल्यू॰ रिचने १४ अगस्तको ब्रिटिश प्रधानमन्त्री सर हेनरी केम्बेल बैनरमैनके नाम एक पत्र भेजा था (देखिए परिशिष्ट ५)। सरकारी उत्तरमें, दूसरे विषयों के साथ-साथ कहा गया था: "प्रधानमन्त्रीको ज्ञात नहीं है कि स्वयं ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीयोंने जो रुख अपनाया है वह इन प्रस्तावों द्वारा सही-सही व्यक्त होता है या नहीं।" जाहिर है कि यह गांधीजीको सूचित किया गया था। रिचने प्रधानमन्त्री के नाम अपने १४ अक्तूबरके पत्रमें उपर्युक्तको, "ट्रान्सवाल ब्रिटिश भारतीय संघके अवैतनिक मन्त्रीसे प्राप्त एक पत्र" के रूपमें उद्धृत किया था। मूल उपलब्ध नहीं है।
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