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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जनरल बोथाको धमकी दी कि यदि बोअर लोग राज्य-संचालनमें भाग नहीं लेंगे तो उनके बिना ही राज्य चलाया जायेगा। जनरल बोथा ऐसी धमकीसे डरे नहीं। अब नतीजा यह हुआ कि बोअर लोगोंको पूर्ण स्वराज्य मिल गया है। यह उदाहरण महान बहिष्कारका है। बोधाने बहिष्कार किया और विजय प्राप्त की।

इस उदाहरण में हमें इतना याद रखना चाहिए कि बोअर अधिक अधिकार माँग रहे थे। अधिक अधिकार नहीं मिले, इसलिए वे बहिष्कारपर आमादा हुए। हम ज्यादा अधिकार नहीं मांगते, बल्कि हमपर गुलामीका जो जुआ रखा जा रहा है उसका विरोध कर रहे हैं। उसमें हमारे लिए डरनेकी क्या बात है? बोथाका बहिष्कार सफल हुआ, क्योंकि उनमें पूरी हिम्मत थी, और लॉर्ड मिलनरको विश्वास हो गया था कि वे राज्य-संचालनमें भाग न लेनेकी निरी धमकी नहीं दे रहे हैं, बल्कि बात सत्य है। हमारी लड़ाईका अबतक जनरल स्मट्सपर यह प्रभाव नहीं पड़ा कि भारतीयोंका जोर पूरा और सच्चा है। हम आशा करते हैं कि जनरल बोथाका उदाहरण लेकर भारतीय जनता अन्ततक उत्साह कायम रखेगी।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, १९-१०-१९०७

२३६. पीटर्सके मुकदमेसे लेने योग्य सीख

श्री पीटर्सको फोक्सरस्टमें मुसीबत क्यों उठानी पड़ी? यह प्रश्न प्रत्येक भारतीयके मनमें उठना चाहिए। यदि कोई गोरा अच्छे कपड़े पहनकर प्रथम या द्वितीय श्रेणी में यात्रा कर रहा हो तो अनुमान यह किया जायेगा कि वह प्रतिष्ठित व्यक्ति होगा, फिर वास्तवमें भले वह जबरदस्त अपराधी हो क्यों न हो। काली चमड़ीवाला व्यक्ति भले प्रतिष्ठित हो, उसके बारेमें अनुमान यह किया जायेगा कि वह ठग ही होगा। श्री पीटर्सके सम्बन्ध में ऐसा ही हुआ है। जाँच-अधिकारीने मान लिया कि श्री पीटर्सके पास झूठा अनुमतिपत्र होना चाहिए। उसमें अधिकारीका अधिक दोष नहीं है। दोष सरकारका है। भारतीयोंको झूठे समझकर उसने खूनी कानून पास किया है। जाँच-अधिकारीने उसका अनुसरण किया। इस प्रकार आज भारतीयोंका सम्मान नहीं है। किन्तु यदि भारतीय समाज खूनी कानूनके सामने झुक जाये तो फिर प्रतिष्ठा तो एक ओर रही, यदि गोरे बिना ठोकरके भारतीयसे बात न करें तो उसमें आश्चर्यकी कोई बात नहीं। ऐसे ठोस कारणोंको लेकर भारतीय समाज कानूनका विरोध कर रहा है, उसकी लड़ाई किसी धारा या अँगुलियोंकी निशानीके खिलाफ नहीं है। जहाँपर कानूनकी जड़ ही खराब है, वहाँ उसकी शाखाओंका विरोध करनेसे क्या होगा? जड़पर कुल्हाड़ी मारनेकी आवश्यकता है, और वह कुल्हाड़ी है भारतीयोंकी हिम्मत तथा उनकी मर्दानगी।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, १९-१०-१९०७