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२४०. पत्र: 'स्टार' को[१]

जोहानिसबर्ग
अक्तूबर २४, १९०७

सेवामें

सम्पादक
'स्टार'

[जोहानिसबर्ग]
महोदय,

मुझे खेद है कि एशियाई पंजीयन अधिनियमके बारेमें आपके सौजन्यका लाभ पुनः उठा रहा हूँ। आपने वॉन बैंडिस स्क्वेयरको आजकी घटनाओंकी जो रिपोर्ट दी है उसमें इसके साफ चिह्न दिखाई देते हैं कि वह किसी के उकसानेसे लिखी गई है।

इस बातको तो मैं नजरअन्दाज किये देता हूँ कि भारतीय धरनेदारोंको "कुलियोंके धरनेदार" कहा गया है, क्योंकि यह निर्दोष और प्रतिष्ठित व्यक्तियोंका ज्ञानशून्य चित्रण है।

मेरा अब भी यह खयाल है कि पंजीयनको रोकनेके लिए न तो धरनेदार और न ही कोई अन्य भारतीय नैतिक रूपसे समझाने-बुझानेकी सीमासे आगे बढ़े हैं। जिस भारतीयका आपके संवाददाताने उल्लेख किया है वह आज अदालतमें गवाही दे रहा था, और उसने निश्चय ही यह कहा है कि उसे किसी प्रकार परेशान नहीं किया गया। उसकी बाँह पकड़ ली गई थी और जब उसने कहा कि वह पंजीयन कार्यालयमें जाना चाहता है तो उसे जाने दिया गया। यह उसका अपना ही साक्ष्य था और उसकी पुष्टि उसके पंजीयन करानेवाले साथी तथा अभियुक्तने भी की। मैं नहीं जानता कि इसे किसी प्रकार कल्पनाकी खींचातानसे भी "दफ्तरके बाहर बुरी तरह गरदनियाँ देना" कहा सकता है। मैं प्रसंगवश कह दूँ कि जिस भारतीय अभियुक्तने उन लोगोंको—वे दो भारतीय थे—रोका था, वह कोई धरनेदार नहीं था, और उन दोनोंको भी पता नहीं था कि कानून क्या है। वे बस इतना ही जानते थे कि उनके मालिकने एक पत्र देकर कहा कि वे जोहानिसबर्गके अमुक कार्यालय में जाकर हस्ताक्षर कर आयें। यदि कोई ऐसे आदमियोंको कमसे-कम इतना बता दे कि वे किस जालमें फँसने जा रहे हैं तो इसपर किसी प्रकारकी आपत्ति क्यों होनी चाहिए? डॉक्टर मेथेका आदमी पंजीयन नहीं कराने पहुँचा, और पंजीयन अधिकारी मान बैठे कि उसे अवश्य ही डराया-धमकाया गया होगा। लेकिन उनकी इस धारणा जैसी ही वजनी और और अधिक सम्भावित तो यह बात भी हो सकती है कि उसने अपने मित्रोंके उलाहनेपर ध्यान दिया, और उसे डराया नहीं गया। मैं इस बातको खुले दिलसे मंजूर करता हूँ कि यदि धरना नहीं दिया जाता तो बहुत-से भारतीय पंजीयन करा लेते। वास्तवमें वे जिस बातसे डरते हैं वह धौंस-धमकी नहीं है, बल्कि भारतीय जनमत है। वे ऐसे आदमी हैं जो जानते

  1. यह २-११-१९०७ के इंडियन ओपिनियन में उद्धृत किया गया था।