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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हैं कि कानून बुरा है, फिर भी अपनी सांसारिक अभिलाषाओंसे ऊपर नहीं उठ सकते, और यदि धरनेदार न होते तो वे पंजीयन जरूर करा लेते। इस सम्बन्धमें मुल्लाके मामलेका उल्लेख या तो आपके संवाददाताका घोर अज्ञान या वैसा ही भारी पूर्वग्रह प्रकट करता है; क्योंकि यह मामला पूरी तरहसे धार्मिक झगड़ेका था और जिस मुल्लापर हमला किया गया था उसने अपनी गवाहीमें अपने हलफिया बयान देनेपर भारी खेद प्रकट किया था। मैं हमला करनेवाले फकीरकी ओरसे कोई सफाई देना नहीं चाहता। किन्तु मैं समझता हूँ कि सभी समुदायोंमें ऐसे आदमी होते हैं, और सम्बन्धित समुदायके लोग उनपर गर्व करते हैं। वे किसी राष्ट्रीयताके लिए नहीं, बल्कि एक सिद्धान्तके लिए जीते हैं।

आपका, आदि,
मो॰ क॰ गांधी

[अंग्रेजीसे]
स्टार, २५-१०-१९०७

'२४१. पत्र: 'ट्रान्सवाल लीडर' को

[जोहानिसबर्ग
अक्तूबर २६, १९०७ के पूर्व]

[सम्पादक

'ट्रान्सवाल लीडर'

जोहानिसबर्ग]
महोदय,

एशियाई अनाक्रामक प्रतिरोधियोंकी कथित धमकियोंके सम्बन्धमें आपने जो संयत अग्रलेख लिखा है उसके लिए मेरा संघ आपका आभारी है। भारतीय आन्दोलनमें किसी भी प्रकारकी हिंसाके प्रयोगके विरुद्ध आपने जो-कुछ कहा है उसके प्रत्येक शब्दका समर्थन करनेमें हमें कोई संकोच नहीं हो सकता। एशियाई अधिनियमके बारेमें हमारा लक्ष्य हमेशा यह रहा है कि स्वयं कष्ट भोगकर, न कि दूसरोंको दुःख पहुँचाकर न्याय प्राप्त करें।

आपके स्तम्भोंमें जो अनुच्छेद प्रकाशित हुआ है वह स्पष्ट ही किसीकी प्रेरणासे लिखा गया है। आतंक-राज्यका अस्तित्व अस्वीकार करनेमें मुझे कोई संकोच नहीं है। यह बात दूसरी है, अगर अधिनियमके विरुद्ध ट्रान्सवालवासी समस्त भारतीय जनतामें व्याप्त अत्यन्त प्रबल भावनाने उन भारतीयोंके बीच आतंक फैला रखा हो जो अपने आपको समाजके अलग कर इस अधिनियम के अनुसार प्रमाणपत्र लेना चाहते हैं, और सो भी इसलिए नहीं कि उनको यह प्रणाली पसन्द है, बल्कि इसलिए कि वे पैसेको प्रतिष्ठासे बढ़कर मानते हैं। मैं इस बातको स्वीकार करता हूँ कि अनेक एशियाई अपना पंजीयन करानेकी पूरी इच्छासे ही अपने कामकी जगहोंसे निकले थे, लेकिन बादमें उन्होंने उन चौकस धरनेदारोंके समझाने-बुझानेपर ऐसा न करनेका फैसला किया। धरनेदारोंने पंजीयन करानेवालोंके सामने कानूनका सही रूप खोलकर रख देनेकी