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२४३. अनाक्रामक प्रतिरोधियोंके लिए[१]

राजकीय आवश्यकताका सिद्धान्त, ईश्वरीय नियमका उल्लंघन करनेके लिए केवल उन्हीं लोगोंको बाँध सकता है जो सांसारिक लाभोंकी प्राप्तिके लिए अमान्यको भी मान्य करने की कोशिश करते हैं। किन्तु एक ईसाई, जो ईसा मसीह की शिक्षाके अनुसार आचरण करनेसे मोक्ष पानेमें सच्चा विश्वास रखता है, उस सिद्धान्तको कोई महत्व नहीं दे सकता।—टॉल्स्टॉय

डेविड थोरो एक महान लेखक, दार्शनिक, कवि और साथ ही अत्यन्त व्यावहारिक पुरुष भी था। अर्थात् वह ऐसी कोई शिक्षा नहीं देता था जिसपर वह स्वयं आचरण करनेके लिए तैयार न हो। वह अमरीकाके महानतम और सबसे सदाचारी व्यक्तियोंमें से एक था। दासता उन्मूलन आन्दोलनके समय उसने "सविनय अवज्ञाके कर्तव्य" के बारेमें अपना प्रसिद्ध निबन्ध लिखा था। अपने सिद्धान्तों तथा पीड़ित मावनताके लिए वह जेल भी गया। इसलिए उसका निबन्ध कष्ट-सहन द्वारा पवित्र हो चुका है। इसके अलावा वह हमेशाके लिए रचा गया है। उसकी पैनी दलीलोंका जवाब नहीं दिया जा सकता। जिन एशियाई अनाक्रामक प्रतिरोधियोंके मूक कष्टकी कहानी अब समस्त सभ्य संसारके कानों तक पहुँच चुकी है उनके लिए अक्तूबरका महीना कष्टकर प्रलोभनोंसे पूर्ण था—इसी महीनेके अन्तिम सप्ताह में हम थोरोके निबन्धसे कुछ उद्धरण नीचे दे रहे हैं। मूल निबन्ध एक जेबी पुस्तकके तीस पृष्ठोंसे कुछ अधिक है। इस पुस्तकको श्री ऑर्थर सी॰ फिफील्ड, ४४ फ्लीट स्ट्रीट, लन्दन, ने अपने 'सादा जीवन' नामक सुन्दर पुस्तकमालामें प्रकाशित किया है। इसका मूल्य तीन पेंस है।

उद्धरण

मैं इस आदर्श-वाक्यको हृदयसे स्वीकार करता हूँ कि वही सरकार सबसे अच्छी होती है जो कमसे-कम शासन करती है; और मैं चाहता हूँ कि इसपर जल्दी और ढंगसे अमल किया जाये। अमलमें उसका अन्तिम रूप यह हो जाता है और इसपर भी मेरा विश्वास है: "वही सरकार सबसे अच्छी है, जो बिलकुल शासन नहीं करती; और जब मनुष्य इसके लिए तैयार हों तो वे ऐसी ही सरकार बनायेंगे। सरकार अधिकसे-अधिक एक कार्य-साधक संस्था है, किन्तु प्रायः बहुतेरी सरकारें और कभी-कभी सभी सरकारें कार्य-साधक नहीं होतीं।

आखिरकार, जब सत्ता एक बार जनताके हाथों चली जाती है तब बहुसंख्यकोंको जो शासन करने दिया जाता है, और वह भी लम्बे अर्से तक के लिए, सो इसलिए नहीं कि उनके सही रास्ते जानेकी अधिकसे-अधिक सम्भावना रहती है और न ही इसलिए कि वह अल्पसंख्यकोंको सर्वाधिक उचित जान पड़ता है, बल्कि इसलिए कि

  1. अनाक्रामक प्रतिरोधके सिद्धान्तमें गांधीजीको जो दिलचस्पी थी, वह बादमें इंडियन ओपिनियन में प्रकाशित एक घोषणाके रूप में व्यक्त हुई। घोषणा में उक्त विषयसे सम्बन्धित निबन्ध माँगे गये थे। देखिए परिशिष्ट ६।
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