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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

वे अधिक बलवान होते हैं। लेकिन जो सरकार हर बातमें बहुसंख्यकोंकी ही सुनती हो वह न्यायपर आधारित नहीं हो सकती, उस सीमा तक भी नहीं जिस सीमा तक लोग वैसा समझते हैं।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २६-१०-१९०७

२४४. राष्ट्र-पितामह

हमारे पाठकोंको यह जानकर दुःख होगा कि श्री दादाभाई नौरोजी, अचानक बीमार पड़ जाने के कारण, उस शानदार विदाई भोजमें उपस्थित न हो सके जो उनके सम्मानमें दिया गया था। अभी मुझे 'इंडिया' पत्र प्राप्त हुआ है, जिसमें उस समारोहका पूरा विवरण छपा है। उससे ज्ञात होता है कि समारोहमें सभी राजनीतिक विचारोंके लोगोंने भाग लिया था। किसी समुद्री-तारके न आने से जान पड़ता है कि राष्ट्र-पितामहकी तबीयत अब अच्छी हो गई है और उनके संयमी, तपस्वी तथा निग्रही जीवनने, जिसका सर मंचरजीने इतनी वाग्मितासे वर्णन किया, उनका अच्छा साथ दिया है। हमें आशा है कि जिस देशको वे इतना अधिक प्यार करते हैं उसके लिए वे दीर्घकाल तक जीवित रहेंगे।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २६-१०-१९०७

२४५. मेमन लोगोंकी विपरीत बुद्धि

हममें एक कहावत है, विनाश-कालमें बुद्धि विपरीत हो जाती है। यही हाल ट्रान्सवालके मेमन लोगोंका हो गया है। उनमें गुलामीका पट्टा न लेनेवाले बहुत कम लोग बचे होंगे। जो बचे हैं उन्हें हम सिंहके समान मानते हैं। जिन्होंने दुर्मति बरती है उन्हें चोट पहुँचाने के लिए हम यह लेख नहीं लिख रहे, बल्कि इसलिए लिख रहे हैं कि उनके बुरे कामसे दूसरे भारतीय अच्छा सबक लें।

मेमन लोगोंने पंजीयनपत्र ले लिये हैं, इससे दूसरी कौमोंको डरना नहीं चाहिए। डरना बेहिम्मतकी निशानी है। कोई यह न समझ ले कि चूँकि मेमन लोगोंने खूनी कानून के चिट्ठे ले लिये, इसलिए वे ट्रान्सवालमें सुख से व्यापार करेंगे और ज्यादा कमायेंगे, तथा दूसरे भारतीयोंको भागना पड़ेगा। वास्तव में जहाँ थोड़े-से मेमन गुलाम बन गये हैं, वहां सैकड़ों भारतीय मुक्त हैं। इस बातको समझकर हमें खुदाकी बन्दगी करनी चाहिए। जो यह आशा करते हों कि गुलामीका पट्टा लेने के बाद मेमन सुखसे व्यापार कर सकेंगे उन्हें हम नासमझ मानते हैं। और यदि दूसरे भारतीयोंको ट्रान्सवाल छोड़ना पड़ा तो मेमन लोगोंको जो ठोकरें पड़ेंगी वह गोरे तो देख ही पायेंगे। उनकी स्थितिकी कल्पना करके हमें कँपकँपी छूटती है।