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पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 7.pdf/३४८

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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

एक कुत्तेकी बहादुरी

यहाँके धरनेदारोंने एक प्रसिद्ध चित्रकारका बनाया चित्र खरीदा है। वह बहुत ही प्रभावोत्पादक और हर भारतीयको जोश दिलानेवाला है। उसमें एक कुत्ते और दो बालिकाओंका दृश्य है। बालिकाओंने जूते उतार दिये हैं और उनमेंसे एक कुत्तेको रस्सी बांध कर खींचती है और दूसरी उसे धक्का देती है। लेकिन वह वहादुर अपनी जगहसे टससे मस नहीं होता। इसका नाम है अनाक्रामक प्रतिरोध [पैसिव रेजिस्टेन्स]। चित्रकारने भी इस चित्रको अनाक्रामक प्रतिरोधी कहा है। वह कुत्ता इतना बलवान चित्रित किया गया है कि यदि काटना चाहे तो काट सकता है। लड़कियाँ हठीली तो हैं किन्तु बच्चियाँ हैं। लेकिन कुत्ता सिर्फ अपनी जगह नहीं छोड़ना चाहता। वह कहता है "मैं तुम्हारा गुलाम कदापि नहीं बन सकता। तुम मुझे रस्सीसे खींचो या धक्के मारो, पर मैं नहीं दूंगा। स्वेच्छासे तुम्हारे साथ चलूँ तो बात अलग है। तुम्हारी जबर्दस्ती नहीं चलेगी। न मैं ही तुमपर कोई बल प्रयोग करूँगा।" भारतीयोंकी लड़ाई इसी प्रकारकी है। हमें किसीपर बल-प्रयोग नहीं करना है। लेकिन हमने जो प्रतिज्ञा की है उसे भी नहीं छोड़ना है।

गद्दारोंकी सूची

आजतकके गद्दारोंकी—उन्हें काले पैरवाले, कलमुँहे, पियानो बजानेवाले, कुछ भी कहिए—जो सूची मेरे हाथमें आई है, वह यहाँ दे रहा हूँ:[]

इस सूचीको प्रकाशित करते हुए मुझे शर्म आती है। लेकिन कर्तव्य समझकर, शर्मको दबाकर, प्रकाशित कर रहा हूँ। इनमें से श्री हासिम मुहम्मद पीटर्सबर्गमें मुख्य धरनेदार थे। उन्होंने कलंक लगवाया, यह कम खेदकी बात नहीं है। इनमें पहल करनेवाले श्री अबू ऐयवजी माने जाते हैं। लेकिन वे श्री खमीसाकी शतरंजकी बाजीमें एक प्यादे थे। उन्हें क्या दोष दिया जाये? ये महाशय इतने शरमाते थे कि इन्होंने पहले नम्बरका पंजीयन लेने में आनाकानी की। इसलिए पंजीयन अधिकारीने इन्हें १२७ वाँ नम्बर दिया। इतनी बेहूदगी होते हुए भी भारतीय डरता है, यही हमारी अधमताका चिह्न है। इस सूचीसे मालूम होता है कि पंजीयन करवानेवालोंमें मुख्यतः मेमन लोग हैं। कुछ कोंकणी हैं और शेषमें एक गुजराती हिन्दू और दो-तीन मद्रासी हैं। इसमें श्री हेलू और दूसरे चार-पांच कोंकणी आदिके, जो जोहानिसबर्ग में अर्जी दे चुके हैं, नाम नहीं हैं। अब ज्यादा दिन नहीं हैं। बाजे-गाजेके साथ बरात मँड़वेमें पहुँच जायेगी। उपर्युक्त सूची बड़ी मुश्किलसे मिली है। प्रिटोरियाके व्यापार संघको वह मेहरबानीके तौरपर दी गई थी। लेकिन जहाँ बात एक कानसे दूसरे कानपर जाती है कि हवामें उड़ने लगती है, वहाँ यदि संघको लिखित सूची मिले और वहाँसे दूसरेके पास चली जाये तो उसमें आश्चर्य कौन-सा? और यदि दूसरेको मिलती है तो फिर बेचारे 'इंडियन ओपिनियन' का क्या दोष? इसपर यदि कोई यह माने कि ये नाम मुझे व्यापार संघसे मिले हैं तो यह उसकी भूल होगी। कहाँसे मिले, इसे जाननेकी इच्छावालेको फिलहाल तो हवा खानी पड़ेगी।

क्लार्क्सडॉर्पका अखबार

यह अखबार कानूनके बारेमें जो आलोचना करता है उसे देखकर हँसी आती है। उसने कहा कि श्री गांधी जैसे उपद्रवी आदमीका क्या लगता है ? वह तो थैली उठाकर दूसरी

  1. इसके बाद ७४ नामोंकी सूची दी गई थी, जो यहाँ नहीं दी जा रही है।