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पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 7.pdf/३४९

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जगह जा बैठेगा। लेकिन जिनके धन-दौलत है उन्हें तो गुलाम बन ही जाना चाहिए। क्योंकि सरकार तो कह ही चुकी है कि भारतीयोंको निर्वासित कर दिया जायेगा, और उन्हें परवाने भी नहीं दिये जायेंगे। क्लार्क्सडॉर्पके अखबारके सम्पादकने यह सीख आप्त-जनकी तरह दी है। सम्पादक महोदय यह भूल जाते हैं कि लोग सम्पत्ति गुलाम बननेके लिए नहीं, बल्कि आजाद रहनेके लिए रखते हैं। कटार म्यान में रखी हुई तो शोभा बढ़ाती है, किन्तु यदि छातीमें खोंस ली जाये तो मौत हो जाती है, उसी प्रकार सम्पत्ति इज्जतदार आदमीको ही शोभा देती है। गुलामके लिए तो वह छातीमें खोंसी हुई कटार है। जिन्होंने सम्पत्ति कमाई है उन्हें उसे बर्बाद करने का हक है। और भारतीय समाज उन्हीं हकोंको बरत रहा है। यह सयानेपनकी शिक्षा देनेवाले गोरे अपने देश और सम्मानके लिए कई बार स्वयं अपनी सम्पत्ति गँवा चुके हैं। और उन्होंने उतनी ही आसानीसे फिर कमा भी ली है। अब यदि अपने सम्मान और धर्मके लिए भारतीय समाज अपनी सम्पत्तिको लात मारता है तो उसमें आश्चर्य कौन-सा?

बहुत ही महत्वपूर्ण मुकदमा

मैं लिख चुका हूँ कि श्री दुर्लभ वीराका परवाना सम्बन्धी मुकदमा रूडीपूर्टमें चला था। उसमें मजिस्ट्रेटने यद्यपि श्री दुर्लभ वीराके प्रति सहानुभूति व्यक्त की, फिर भी फैसला उसके विरुद्ध दिया। मुकदमा दो व्यक्तियोंपर था। एक उनपर और दूसरे उनके नौकरपर। श्री दुर्लभ वीराके पास परवाना नहीं था। नौकरने माल बेचा था, इसलिए मुकदमा उसपर भी था। मजिस्ट्रेटने फैसला दिया कि यद्यपि श्री दुर्लभ वीराको परवाना पानेका हक है, फिर भी चूँकि आदाताने परवाना नहीं दिया, इसलिए उन्हें दुकान खोलनेका हक नहीं है। नौकरने चूँकि माल बेचा था, इसलिए वह व्यापार हुआ; और इसलिए उसे भी गुनहगार ठहराया गया। नौकरको सजा नहीं दी गई। श्री दुर्लभ वीराको एक शिलिंग जुर्माना किया गया।

सर्वोच्च न्यायालयमें जो अपील की गई थी उसमें ये कारण बताये गये थे:

(१) नौकरने माल बेचा, यह गुनाह नहीं है। कानून सिर्फ मालिकको ही गुनहगार ठहरा सकता है।

(२) श्री दुर्लभ वीराने परवाने के लिए अर्जी दी थी, किन्तु उनका हक होते हुए भी चूँकि आदाताने परवाना नहीं दिया इसलिए उसमें श्री दुर्लभ वीराका दोष नहीं माना जा सकता। अतः, उनको दण्ड न दिया जाना चाहिए।

अदालतने अपीलका निर्णय यह किया कि बिना परवानेके व्यापार करनेवाले मालिकको कानून सजा देता है। वह नौकरको सजा नहीं दे सकता। इसलिए नौकर निर्दोष है। उसका कुछ नहीं हो सकता।

श्री दुर्लभ वीराको [न्यायालय के अनुसार] परवाना लिये बिना दूकान खुली रखनेका हक नहीं था। उन्हें आदाताको फिरसे अर्जी देनी चाहिए। उसके बाद यदि न्यायालयको मालूम होगा कि आदाता जान-बूझकर परवाना नहीं दे रहा है, तो न्यायालय उसे खर्च दिलवायेगा और अर्जदारकी नुकसानीकी पूर्ति भी करवायेगा।

यह फैसला बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इसमें से कई रास्ते निकल सकते हैं। यह ट्रान्सवालकी लड़ाई में लोगोंको बहुत हिम्मत देनेवाला है। बहुतेरे भारतीयोंको डर है कि जनवरीमें परवाना नहीं मिला तो दुकानें बन्द कर देनी चाहिए। किन्तु अब वह डर नहीं