पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 7.pdf/३५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३२१
पत्र: उपनिवेश-सचिवको

और उत्तरके, जिन्हें साधारणतया कलकतिया कहते हैं, रूपमें विभक्त हैं। सिखों और पठानोंका अलग वर्गीकरण न करना पड़े, इस विचारसे यदि हिन्दू हैं तो उन्हें उत्तरी लोगों में और मुसलमान हैं तो सूरती लोगोंमें शामिल कर लिया गया है। ईसाइयोंका अलगसे वर्गीकरण नहीं किया गया, क्योंकि एक तो लगभग वे सबके-सब मद्रासी हैं और दूसरे, वे कुल मिलाकर २०० से अधिक नहीं हैं। अतः, धर्म और प्रान्तके हिसाबसे वर्गीकरण इस प्रकार किया गया है: सूरती, १,४७६; कोंकणी, १४१; मेमन, १४०; गुजराती हिन्दू, १,६००; मद्रासी, ९९१; उत्तरी, १५७, पारसी, १७।

मैं यह भी कह दूँ कि मेमनोंको छोड़कर शायद ही कोई हस्ताक्षर देनेसे रहे हों, किन्तु हस्ताक्षरोंकी अनुयाचनाके लिए हमें जितना समय मिला था उसमें ट्रान्सवालके कोने-अँतरोंके हिस्सों—जैसे फारम आदिमें बसे हुए हर भारतीय तक पहुँच पाना मेरे संघके बूतेसे बाहरकी बात थी । अनुयाचकोंने—जिनमें सब जिम्मेदार और प्रातिनिधिक व्यक्ति हैं—खबर दी है कि समाजको जो संघर्ष करना पड़ रहा है उसके कारण भारतीय एक बड़ी तादादमें ट्रान्सवाल छोड़कर जा चुके हैं। सभी मानते हैं कि शान्ति-रक्षा अध्यादेशके अन्तर्गत ब्रिटिश भारतीयोंको १३,००० अनुमतिपत्र दिये गये हैं, और जब गत वर्ष सितम्बर मासमें दुर्भाग्यसे यह संघर्ष शुरू हुआ तब लगभग इतने ही भारतीय ट्रान्सवालमें रहते थे। आज मेरे संघको प्राप्त जानकारीके अनुसार ट्रान्सवालमें ८००० से अधिक ब्रिटिश भारतीय नहीं हैं; बल्कि यह संख्या, सम्भवतः, ८,००० की अपेक्षा ७,००० के अधिक करीब है। मेरे संघको यह ज्ञात है कि थोक व्यापारियोंके दबाव डालने या ऐसे ही दूसरे कारणोंसे कुछ मेमनों और अन्य लोगोंने, जिनकी संख्या ३० से अधिक नहीं है, दस्तखत वापस ले लिये हैं और कानूनके अन्तर्गत पंजीयनकी दरख्वास्त की है। इसके अतिरिक्त मेरे संघ द्वारा प्राप्त जानकारीके अनुसार जिस अवधि तक—अर्थात् १ जुलाईसे ३१ अक्तूबर तक—पंजीयन चलता रहा, उसमें सारे ट्रान्सवालमें ३५० से ज्यादा भारतीयोंने पंजीयनके लिए दरख्वास्त नहीं की है, और इन प्राथियों में से ९५ प्रतिशत मेमन हैं।

अन्तमें मेरा संघ सरकारका ध्यान एशियाई कानून संशोधन अधिनियमके विरुद्ध उस समाजकी तीव्र भावनाकी ओर आकर्षित करता है जिसका कि मेरा संघ प्रतिनिधि है। समाजको इसके प्रति जो रुख अख्तियार करना पड़ा है उसमें उसका इरादा सरकार अथवा देशके कानूनको अमान्य करनेका नहीं रहा है। बल्कि बात यह है कि इस कानून द्वारा समाजपर जो ज्यादती की गई है उसकी अनुभूति तथा कानूनके समस्त निहित अर्थोंने भारतीयोंको वे मुसीबतें झेलनेके लिए तैयार हो जानेपर मजबूर कर दिया है, जो अनाक्रामक प्रतिरोधके लिए, जिस रूपमें ब्रिटिश भारतीयोंने उसे समझा है, उन्हें झेलनी पड़ेंगी।

[आपका, आदि,
ईसप मियाँ
अध्यक्ष
ब्रिटिश भारतीय संघ]

[अंग्रेजीसे]
ट्रान्सवाल लीडर, २-११-१९०७
७-२१