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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

बाहर रहनेको स्वतन्त्रता नहीं दी जा सकती। हमारा देश अपने ही लिए रखनेका हमें पूर्ण अधिकार है। परदेशी लोगोंको इस देशपर पूरी तरह छा जानेसे रोकनेकी हमें पूरी सत्ता है। किन्तु इन विदेशियोंको अपमानित करने अथवा हानि पहुँचानेका हमें कुछ भी अधिकार नहीं है।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, २-११-१९०७

२५८. लन्दनमें मुसलमानोंकी बैठक

अखबारोंमें खबर है कि लन्दन में नये कानूनका विरोध करनेके लिए मुसलमानोंकी एक सभा होनेवाली है। यह खबर मामूली नहीं है। लन्दनमें रहनेवाले मुसलमान सभी कौमों और सभी देशोंके हैं। उनमें गोरे भी हैं। उनकी सभाका असर पड़े बिना नहीं रहेगा। इससे मुसलमान भाइयोंको ज्यादा जागृत रहकर तथा ज्यादा हिम्मतसे ट्रान्सवालकी लड़ाई में भाग लेना चाहिए।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, २-११-१९०७

२५९. जोहानिसबर्गकी चिट्ठी
अन्तिम सप्ताह

अब अक्तूबरके अन्तिम दिन हैं। इस चिट्ठीके छपनेतक यहाँसे "प्लेग कार्यालय" उठ चुकेगा। इसे लिखनेतक तो भारतीयोंका जोर कायम है। तमाम मेमन लोगों और थोड़ेसे कोकणियोंके सिवा दूसरे सब लोग पूरे जोरमें हैं। मैंने "तमाम मेमन लोग" कहा है; किन्तु ऐसी आशा बँधती है कि पीटर्सबर्गके पाँच-सात और पीट रिटीफमें जो दो-तीन मेमन हैं, वे मेमनोंकी कुछ नाक रखेंगे। बाकी तो जहाँ एक दो थे वे भी दौड़-धूप करके, झूठा-सच्चा हलफनामा देकर, गुलामीका चोगा पहनकर, अपने मन शाहजादा बनकर कौमकी, इज्जतकी या शपथकी परवाह न करके ठिकाने लग गये हैं। हम लोगोंमें कहावत है कि 'आसमान फटे तो पैबन्द कैसे लगाया जाये?' वैसे ही जब पीटर्सबर्गके मुखिया खुद गुलाम बनें और दूसरोंको गुलाम बननेकी सीख दें, तब मेमनोंमें किसे क्या कहा जाये?

श्री हाजी कासिमने एक और नया ही रास्ता निकाला। उन्हें लगा कि "डरसे नहीं लिया" ऐसी हलफ उठाना तो महापाप होगा; इसलिए उन्होंने जनरल स्मट्सको लिखा कि हमें आशा थी कि आप कुछ परिवर्तन करेंगे, किन्तु वह परिवर्तन नहीं हुआ; इसलिए अब पंजीयन कराना चाहते हैं, तो मंजूरी मिलनी चाहिए। जनरल स्मट्सको भी काफी गुलाम तो मिले नहीं हैं और न गुलामोंके बिना काम ही चलेगा। इसलिए उन्होंने मेहरबानीके रूपमें