पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 7.pdf/३६९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३३७
श्री लैबिस्टर

कार्यालयके अफसरोंपर यह आरोप लगाता है कि उन्होंने कुछ ऐसे कायरोंसे गुप्त रूपसे प्रिटोरियामें प्रार्थनापत्र लिये, जिन्होंने जाली तरीकेसे झूठे हलफनामे पेश किये और झूठे बयान दिये कि कुछ व्यक्तियोंके, जिनके नाम नहीं बताये गये, डराने-धमकानेसे वे पहले प्रार्थनापत्र नहीं दे सके थे। मेरा संघ एक बार फिर यह बतला देना चाहता है कि भारतीय लोग इस युद्धमें निश्छल रूपसे लड़ रहे हैं, अतएव उनको धोखे या असत्यका आश्रय लेनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। भारतीयोंके विरुद्ध यह कहा गया है कि वे, दूसरे सभी प्राच्य लोगोंके समान, दुरंगी चाल चलते हैं, जिसके लिए "प्राच्य" शब्दका प्रयोग किया गया है। आपके संवाददाताके तारमें तथ्योंको जिस विचित्र ढंगसे तोड़ा-मरोड़ा गया है उसका चित्रण करना बहुत कठिन है।

[आपका, आदि,
ईसप इस्माइल मियाँ
अध्यक्ष
ब्रिटिश भारतीय संघ]

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, ९-११-१९०७

२६२. श्री लैबिस्टर

श्री लैबिस्टरके दुःखद अवसानसे नेटाल और भी दरिद्र हो गया है। श्री लैबिस्टरके रूपमें नेटालके वकील संघका एक चतुर तथा प्रसन्नचित्त सदस्य, सरकारका एक विश्वस्त सेवक और भारतीयोंका एक सच्चा मित्र उठ गया। न्यायाधीशोंने उन्हें जो श्रद्धांजलि अर्पित की उसके वे योग्य पात्र थे। जब वे नगर परिषद् के सदस्य थे, तब विक्रेता परवाना अधिनियमके सम्बन्ध में उन्होंने जो वीरतापूर्ण रुख अपनाया था[१] उसके लिए भारतीय सदा उन्हें कृतज्ञतापूर्वक याद करते रहेंगे। यहाँ यह भी कहा जा सकता है कि यद्यपि जनताको इस बातका पता नहीं, किन्तु वे श्री लैबिस्टर ही थे जिन्होंने भारतीयोंके प्रवेशको नियमित करनेके बारेमें अपनी नीतिपर दृढ़ रहते हुए भी अपनी व्यवहार कुशलतासे अनेक भारतीय व्यापारियोंको बरबादीसे बचाया था; क्योंकि उन्होंने उन भारतीयोंपर मुकदमा चलानेसे इनकार कर दिया था जिनके परवाने, उनके पुराने व्यापारी होते हुए भी, व्यापारिक ईष्यकेि कारण छीन लिये गये थे।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, ९-११-१९०७
  1. देखिए खण्ड ३, पृष्ठ ३३ और ४७४।
७-२२