२६५. समझदारके लिए इशारा
हममें एक कहावत है कि समझदारके लिए इशारा काफी है। चारों ओर जो लक्षण दिखाई दे रहे हैं उनसे यही प्रकट होता कि यदि भारतीय समाज आखिरतक लड़ता रहा तो जीतेगा। जीता हुआ तो आज ही है। किन्तु प्रतिष्ठापूर्वक ट्रान्सवालमें रह सकेगा। 'फ्रैंड' का लेख हम देख चुके हैं।[१] अवधि नवम्बर तक बढ़ा दी गई है, यह हम देखते हैं। इससे सरकारकी कमजोरी प्रकट होती है। जो गोरे पहले भारतीय प्रश्नकी बात शायद ही कभी करते थे वे अब उसीकी बात करते रहते हैं। 'लीडर' जैसा अखबार सरकारको चेतावनी दे रहा है कि वह धीरज रखे, ब्रिटिश नीतिको याद करे, अपनी जिम्मेदारी समझे और भारतीयोंके साथ न्याय करे।
जैसे एक ओरसे ये सब शकुन दिखाई दे रहे हैं, वैसे ही दूसरी ओरसे सच्ची कसौटीका समय नजदीक आता जा रहा है। बोलनेमें हम हमेशा होशियार कहलाये हैं। आरम्भ-शूर भी कहलाये हैं। अब अन्तिम समयमें हम ठिकानेपर रहेंगे या नहीं, यह देखना है। यदि आखिरी ताकत नहीं लगायेंगे तो आजतकके किये-करायेपर पानी फिर जायेगा। जो लड़ाई भारतीयोंके बिना माँगे हाथ आ गई है, वैसी फिर आनेवाली नहीं है। लक्ष्मी जब तिलक लगाने आई है तब यदि भारतीय मुँह छिपायेंगे तो फिर कभी ऐसा मौका हाथ नहीं आयेगा। लड़ाई जोखिम है भी और नहीं भी। जो पैसेसे चिपटे हुए हैं, उन्हें सहज ही जोखिम मालूम होगी। किन्तु जो सिर्फ देशके सेवक हैं, जो टेकवाले हैं, उनके लिए तो जोखिम रत्ती भर भी नहीं है। कानून उनके लिए है ही नहीं। कानूनके खिलाफ जूझनेपर भी यदि वह रह जाये तो इसमें उनकी हार नहीं होगी। वे परीक्षा में सौ टका खरे उतरेंगे और जहाँ जायेंगे वहीं उनका मूल्य ऊँचा होगा। इतना जोश रखे बिना जीत हो ही नहीं सकती। जो सिरपर कफन बाँध कर जाते हैं वे ही जीत कर आते हैं। इस लड़ाईमें सच्चा सहारा खुदा—ईश्वर—का है। उसके सामने कोई शर्त नहीं रखी जा सकती। शर्त रखने के बाद भरोसा नहीं रखा जा सकता। इस विचारको ठीक मानकर भारतीय समाज अन्ततक एक टेकवाला बना रहे, यही हमारी ईश्वरसे प्रार्थना है।
इंडियन ओपिनियन, ९-११-१९०७
- ↑ देखिए "ब्लूमफॉटीनका मित्र: फिर भारतीयोंकी सहायतापर", पृष्ठ ३२५-२८।